Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ११५ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सोचा कि इसको उठा कर ले जाने का व्यवहार (उद्यम) क्यों किया जाय । निश्चय में लिखा होगा तो आपसे ही घर पर आ जायगा। बस उस खजाने को छोड़ के आ गया। रात्रि में अपनी औरत से सब हाल सुनाया। उस समय गुप्त रहा हुश्रा एक चोर भी सुनता था। उसने सेठजी के बतलाये हुये स्थान पर जा कर देखा तो वहाँ एक चरू था। खजाना निकालने की गरज से उसमें हाथ डाला तो उस खजाने में साँप बिच्छू के रूप में चोर को काट खाया । चोर ने सोचा कि सेठ ने मुझे मारने का उपाय किया तो इसको लेजा कर संठ पर डाला जाय कि वह स्वयं मर जाय । बस, चोर ने उस खजाने को लेजा कर सोते हुये सेठ पर डाल दिया कि वह पुनः खजाना हो गया अर्थात् निश्चय रखा तो निधान घर पर आ गया। अतः निश्चय ही को मानना ठीक है । यदि निश्चय में नहीं है तो व्यवहार उल्टा नुकसान का कारण बन जाता है । जैसे एक मूषक ने व्यवहारिक उद्यम कर एक छबड़े को काटा अन्दर था सर्प । मूषक को भक्षण कर गया । अतः मेरी मान्यता के अनुसार एक निश्चय ही प्रधान है।
सूरिजी ने कहा कि ऐसे तो व्यवहार की प्रधानता के भी अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं। जैसे आप यहाँ से जाने का उद्यम न करें, फिर कैसे मकान पर पहुँच सकते हैं । रसोई की सब सामग्री होने पर भी बनाने का उद्यम न करें फिर कैसे रसोई बन सकती है। भोजन का ग्रास मुह में डाला है पर उसे गले उतारने का उद्यम न करें फिर वह कैसे क्षुधा को शान्त कर सकता है । इत्यादि अनेक उदाहरण विद्यमान हैं कि व्यवहार बिना निश्चय काम नहीं देता है। हां, निश्चय से ही व्यवहार चलता है। जैसे निश्चय कार्य है तब व्यवहार कारण है पर कारण विना कार्य बन नहीं सकता है जैसे एक भाई निश्चय को प्रधान मान कर व्यवहार का अनादर करता था तब दूसरा भाई व्यवहार को प्रधान समझ कर निश्चय को नहीं मानता था। इन दोनों में इस विषय पर काफी वाद-विवाद हो गया । अतः वे राजा के पास इंसाफ करवाने के लिए गये । दोनों की बातें सुन कर राजा विचार में पड़ गया कि अब मैं किसको सच्चा और किसको झूठा कहूँ । राजा ने इस कार्य को प्रधान पर छोड़ दिया जो स्याद्वाद सिद्धान्त को मानने वाला था ।
प्रधान ने एक मास की तारीख डाल दी । इतने समय में एक छोटा-सा कमरा बनाया, उसकी दीवार में एक छोटा-सा आला रक्खा,उसमें एक छावमें चार लड्डू और जल का एक कोराघड़ा भरकररख दिया और उस पर पत्थर चुना ऐसा लगा दिया कि किसी को मालूम न पड़े । जब एक मास के अन्त में उन दोनों की पेशी हुई और वे दोनों हाजिर हुये तो उन दोनों को उस कमरे में डाल कर कपाट बन्द कर दिये । उनकी वार्तालाप सुनने को एक गुप्त श्रादमी को रख दिया। निश्चयवादी तो चुपचाप सो गया पर व्यवहारवादी ने कहा-भाई सोने से क्या होगा कुछ उद्यम ( व्यवहार ) करिये । निश्चयवादी ने कहा-व्यवहार में क्या धरा है। आखिर तो निश्चय होगा वही होगा । खैर व्यवहारवादी ने दो दिन उद्यम किया कुछ प्राप्ती नहीं हुई पर तीसरे दिन कमरे के भीतर एक दीवार पर मुक्का मारने पर मालूम हुआ कि यहाँ पोलार है। उसने हाथ से या लोहे की चाबी से भींत को खोदा और चुना एवं पत्थर को हटाया तो अन्दर लड्डू और जल पाया । तब निश्चयवादी को कहा भाई तेरा निश्चय तो मर जाने के अलावा कोई फल नहीं देता है, पर देख मेरे व्यवहार से लड्डू और जल मिल गया है । उठ इसे खा कर प्राण बचा ले ! बस चार लड्डू में से दो निश्चयवादी को दे दिये और दो अपने ले लिये । निश्चयवादी लड्डू तोड़ कर खाने लगा तो लड्डू के अन्दर एक बहुमूल्य रत्न निकला जिसको गुप्त रूपेण अंटी में दबा लिया । चौथे दिन उन दोनों को कचहरी में
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