Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कुछ भी उठा नहीं रखा परन्तु परम वैरागी मुनि स्थूलभद्र ने हमेशा वैश्या को जैनधर्म की शिक्षारूप इस प्रकार का उपदेश दिया करता था कि जिससे वैश्या ने वैश्यावृति का त्याग कर जैनधर्म की सुश्राविका बन गई अहा हा मुनि स्थूलभद्र का धैर्य कि परिचित वैश्या के हावभाव से मोहित न होकर उस वैश्या को भी प्रतिबोध दे कर श्राविका बना दी। ___जब चतुर्मास समाप्त हुआ तो चारों मुनि सूरिजी के पास आये और अपना अपना वितिकार कह सुनाया सूरिजी ने तीनों साधुओं को कहा कि तुमने बहुत दुश्कर काम किया है कि सिंहगुफा, सर्प की बॉबी और कूप तट एवं श्मशानों में परिश्रम सहन कर चतुर्मास व्यतीत किया तब स्थूलभद्र को कहा कि तुमने दुक्कर दुक्कर काम किया है जो साधारण साधु से नहीं बन सकता है इत्यादि ।
सूरिजी के वचन सुन कर सिंह गुफा वासी साधु ने सोचा कि इस पक्षपात की भी सीमा है कि हम लोगों ने हथेली में जान लेकर मरणांत कष्ट के स्थान में चतुर्मास करके आये हैं जिसको तो केवल दुक्कर ही कहा जब पूर्व परिचित वैश्या की चित्रशाला में रह कर उनके हावभाव में चतुर्मास करने वाले स्थलभद्र को दुक्कर दुक्कर कहा पर ठीक है आगामी चतुर्मास में मैं भी वैश्या के वहाँ चतुर्मास करने की आज्ञा माँगूंगा और स्थूलभद्र की भांति दुक्कर दुक्कर उपाधि को प्राप्त करूंगा
जब शीत और उष्ण काल व्यतीत हुआ तो सिंह गुफा वासी साधु ने सूरिजी से आज्ञा माँगी कि मैं वैश्या के वहाँ जाकर चतुर्मास करूंगा। सूरिजी ने उसको समझाया पर उसकी अत्याग्रह होने से आज्ञा दे दी और वह साधु जाकर वैश्या की चित्रशाला में चतुर्मास कर दिया। जब वैश्या का अधिक परिचय होने लगा तो मुनि अपने धैर्य को कब्जे में रख नहीं सका वैश्या के हावभाव में मोहित हो गया और आखिर उसने वैश्या से प्रार्थना की इस पर वैश्या ने जवाब दिया कि हे मुने! यहाँ केवल धर्मलाभ से काम नहीं चलता है पर यहाँ तो अर्थलाभ होना चाहिये अतः आप पहला अर्थोपार्जन करें बाद मेरे यहाँ रह सकते हो । अब तो मुनिजी अर्थ प्राप्ती के लिये विचार सागर में गोते लगाने लगे पर उसके लिये आपको एक ही मार्ग नहीं मिला । तब जाकर वैश्या से सलाह पुच्छी तो उसने कहा कि नेपाल देश का राजा साधुओं को रत्न कम्बल देता है आप वहाँ जाकर रत्नकम्बल ले आ तो आपकी इच्छा पूर्ण हो सकती है बस। विषय पिपासु क्या नहीं कर सकता है मुनि नेपाल देश में गया और साधु के वेश में रत्नकम्बल प्राप्त कर वापिस आ रहा था रास्ते में चोर मिल गये खैर ज्यों त्यों अनेक कष्ट सहन कर रत्नकम्बल लेकर वैश्या के पास आये और कम्बल वैश्या को देकर जिस विषय के लिये कष्ट सहन किया था उसकी याचना की तो वेश्या ने कहा आप जरा ठहरिये मैं स्नान मजन करके आती हूँ वैश्या स्नान कर उस रत्नकम्बल से पैर पुच्छ कर उसको गटर में फेंक दी जिसको देखकर मुनि ने कहा कि अरे कौशा ! मैं बड़े ही कष्ट सहन कर कम्बल लाया हूँ जिसको कीचड़ में x स समागत्य कौशाये प्रददौ रत्नकम्बम् । चिक्षेपसागृह नेत पंकेनिःशंक मेवतम् ॥१६॥ अजल्पन्मुनिरप्येवमक्षोपशूचि कर्दमे । महामूल्योह्यसौ रत्नकम्बलः कम्बुकण्डिाकम् ॥१६२॥ अथ कोशाप्युवा चैवं कंबलं मूढ़ शोचसि । गुण रत्नमयंश्वभ्रपतन्तं स्वं न शोचसि ॥१६३॥ तच्छुत्वा जात संवेगो मुनिस्तामित्य वोचत । वोधितोऽस्मित्वया साधुसंसारात्साधरक्षिता ॥१६४॥
"परिशिष्ट पर्ष स्वर्ग आठवां"
MAA.NA
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