Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ३८८
वीरात् ५३० अर्थात विक्रम सं० ६० में विमलसूरि ने पद्मचरित्र ( जैनरामायण ) की रचना की जिसको लोग बड़ी रुचि के साथ सुनते और आनन्द को प्राप्त होते थे। यों तो पद्म नामक बलदेव ( रामचन्द्रजी ) का नाम समवायाङ्ग सूत्र वगैरह जैन मूल आगमों में आता है। पर इस प्रकार विस्तार पूर्वक सब से पहला विमलसूरि का 'पउमचरिय' ग्रन्थ ही है। नागोर के बड़े मन्दिर में एक सर्वधातु की मूर्ति है जिसके पीछे एक लेख खुदा हुआ है। उसमें वि० सं० ३२ के लेख में भी विमलसूरि का नाम है । शायद यह विमलसूरि 'पउमचरिय' ग्रन्थ के लेखक ही हों।
आर्य इन्द्रदिन्न-श्रार्य सुस्थी और श्रार्य सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर आचार्य इन्द्र दिन्न हुये और आचार्य इन्द्रदिन्न के पट्टधर आचार्य दिन्न हुये । इन दशवें और ग्यारहवें पट्टधरों के लिये पट्टावलीकारों ने विशेष वर्णन नहीं किया है । हाँ, स्थविरावलीकार ने आर्य दिन्न के मुख्य दो स्थविर बतलाये हैं १-आर्य शान्तिसेनिक २-आय सिंहगिरि । जिसमें आचार्य शान्ति सेनिक से उच्चनागोरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ और आर्य्य शान्तिसेनिक के प्रधान चार शिष्य हुये और वे चारों शिष्य इतने प्रभाविक थे कि उन चारों शिष्यों के नाम से चार शाखायें प्रचलित हुई जैसे
१-आर्य सेनिक से सकिन शाखा चली। ३-आर्य कुवेर से कुवेरी शाखा चली । २- आर्य तोपस से तापस शाखा चली। ४-आर्य ऋषि पालित से ऋषि पालित शाखा चली।
दूसरे आर्यसिंहगिरि नामक स्थविर के भी मुख्य चार शिष्य थे जैसे १-आर्य धनगिरि २आर्य वज्र ३-आर्य समित ४-आर्य अर्हबलि । जिसमें आर्य व्रज से बज्री शाखा और आर्य समित से ब्रह्मद्वीपका शाखा चली जिन्हों का वर्णन आगे आर्य वज्र के अधिकार में किया जायगा ।
इनके अलावा पूर्व बतलाये हुए गण कुल शाखाओं में बड़े बड़े धुरन्धर युगप्रवर्तक महान प्रभाविक आचार्य हुए जिन्हों का अधिकार पृथक् २ ग्रन्थों में किया गया है । परन्तु पाठकों की सुविधा के लिए यहां पर संग्रह कर दिया जाता है ।
युगप्रधानाचार्यों में कालकाचार्य का नाम जैन संसार में बहुत प्रसिद्ध है पर कालकाचार्य नाम के कई आचार्य हो गये हैं और उन्हों के साथ कई घटनायें भी घटित हुई हैं परन्तु नाम की साम्यता होने से यह बतलाना कठिन हो गया है कि कौन सी घटना किस आचार्य के साथ घटी। इसके लिए कुछ विस्तार से शोध खोज की जरूरत रहती है, अतः पहले तो यह बतला देना ठीक होगा कि कौन से कालकाचार्य किस समय हुए जैसे कि ---
सिरिवीराओ गएसु, पणतीसहिएसु तिसय (३३५) वरिसेसु । पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति ॥ ५५ ॥ चउसयतिपन्न (४५३ ) वरिसे, कालगगुरुण सरस्सरी गहिआ । चउसयसत्तरि वरिसे, वीराओ विकमो जाओ ॥ ५६ ॥ पंचेव य वरिससए, सिद्धसेणे दिवायरो जाओ ।
सत्तसयवीस (७२०) अहिए, कलिग गुरू, सक्कसंथुणिओ॥५७ ॥ श्री कालकाचार्य
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