Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
के उपदेश से वह जैन धर्म स्वीकार कर सूरिजी का परम भक्त बन गया और बहुत आग्रह कर सूरिजी को अपने यहां रख हमेशा ज्ञानगोष्टी किया करता था । एक समय विजयवर्मा राजा सेना लेकर देवपाल पर चढ़ आया । राजा घत्रराया और सूरिजी के पास आकर अपनी दुःखगाथा कह सुनाई । सूरिजी ने सुबर्णविद्या से सोना और सरसप विद्या से असंख्य सुभट बना दिये जिससे देवपाल ने विजयवर्मा को भगा दिया। इससे देवपाल ने सूरिजी को दिवाकर उपाधि से विभूषित किया । इतना ही नहीं पर राजा ने भक्तिवश होकर सूरिजी को छत्र, चँवर, पालकी और हस्ती तक देकर एक बादशाही ठाट सा बना दिया और आचार्य श्री अपने चारित्र को विस्मृत हो कर उन सब डाट के साधनों को उपभोग में भी लेने लग गये ।
आचार्य वृद्धवादी ने यह बात सुनी कि सिद्धसेन चारित्र से शिथिल होकर पालकी एवं हस्ती पर चढ़कर छत्र चँवरादि राजसी ठाट भोग रहा है तो सूरिजी को बड़ा भारी अफसोस हुआ कि सिद्धसेन जैसों का यह हाल है तो दूसरों का तो कहना ही क्या है । अतः अपने योग्य शिष्य का उद्धार करने के लिये स्त्रयं सूरिजी वेश बदल कर कुंर्मार नगर में श्राये और जिस समय सिद्धसेन सुखासन पर बैठ के बहुत लोगों के परिवार से राजमार्ग से निकल रहा था उस समय वृद्धवादीसूरि ने उसके पास जाकर एक गाथा कही । अहुल्ली फूल्ल म तोड़हु मन आराम म मोड हूं । मण कुसुमेहिं अचि निरंजणु हिंडह कांई वणेण वणु ॥
इस गाथा के अर्थ के लिये सिद्धसेन ने बहुत उपयोग लगाया पर गाथा के भाव को नहीं समझ सका टम् परम् अर्थ कहा पर बुढ़ े ने मंजूर नहीं किया तब सिद्धसेन ने बूढ़ े से कहा कि तुम इस गाथा का भाव कहो । बूढ़े ने गाथा का भाव कहते ही सिद्धसेन की सुरत ठिकाने आई और सोचा कि सिवाय मेरे गुरु के ऐसा विद्वान नहीं कि इस प्रकार की गाथा कह सके । तुरंत ही पालकी से उतर कर गुरू के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध की क्षमा मांगी। गुरू महाराज ने सिद्धसेन को यथायोग्य प्रायश्चित देकर स्थिर किया और गच्छ का भार सिद्धसेन को सौंप कर आप अनशन एवं समाधि के साथ स्वर्ग धाम को पधार गये ।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर शुरू से संस्कृत के अभ्यासी एवं अनुभवी थे । शायद प्राकृत एवं मागवी भाषा उनको अच्छी नहीं लगी हो या इनके गूढ़ रहस्य को समझने में कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ा हो या उस जमाने की जनता पर विशेष उपकार की भावना हो एवं किसी भी कारण से प्राकृत भाषा को ग्रामीण भाषा समझ कर जैनागमों को संस्कृत में बना देने के इरादे से श्रीसंघ को एकत्र कर अपने मनोगत भाव श्रीसंघ के सामने प्रदर्शित किये कि श्राप सम्मति दें तो मैं इन सब श्रागमों को संस्कृत में
ॐ स पूर्वदेशपर्यन्ते व्यहार्षीच्च परेद्यवि । १ कर्मारनगरं प्राप विद्यायुगयुतः सुधीः ॥७५॥ देवपाल नरेन्द्रोऽस्ति तत्र विख्यात विक्रमः । श्रीसिद्धसेनसूरिं स नं तुमभ्याययौ रयात् ॥ ७६ ॥ ततो दिवाकर इति ख्याताख्या भवतु प्रभोः । ततः प्रभृति गीतः श्री सिद्धसेन दिवाकरः ॥ ८५॥ तस्य राज्ञो दृढं मान्यः सुखासन गजादिषु । बलादारोपितो भक्तया गच्छति क्षितिपाकयम ॥ ८६ ॥ इति ज्ञात्वा गुरुर्वृद्धवादी सूरिर्जनश्रुतेः । शिप्यस्य राजसत्कार दर्पं भ्रान्त मतिस्थितेः ॥८७॥
हुल्ली फुल्ल मतोडहु मन आरामा ममोडहु । मगकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु हिंहकाई वणेण वणु ॥ १२ ॥
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[ श्री वीर परम्परा
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