Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सातवाहन 'ने मानखेट के राजा कृष्ण को कहला कर पादलिप्तसूरि को प्रतिष्ठनपुर बुलाया। सूरिजी आकर उद्यान में ठहर गये इसकी खबर मिलते ही एक वृहस्पति कवि ने सूरिजी की परीक्षा के लिए ठसा हुआ घृत एक चांदी की कटोरी में डाल कर किसी चालाक आदमी के साथ सूरिजी के पास भेजा। सूरिजी अपनी विद्या से जान गये और उसमें सुइयें खड़ी करके वापिस लौटा दिया इसका भाव यह था कि पंडितों ने सा हुआ घृत भेज कर संकेत किया था कि यहाँ सब पंडित विद्या से पूर्ण रहते हैं यदि आप पंडित हों तो इस नगर में पधारें इस पर सूरिजी ने घृत में सुइयें खड़ी करके संकेत किया कि यहाँ घृत को भेदने वाले पंडित विद्वान हैं । अतः मैं नगर में प्रवेश करूँगा । जिसको देख वृहस्पति मुग्ध हो गया इतना ही क्यों पर राजा भी सूरिजी के प्रति श्रद्धासम्पन्न हो गया और बड़ी धूमधाम से सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया और सूरिजी के ठहरने को एक मकान भी खोल दिया ।
चार्य श्री का इस प्रकार का सत्कार एक पांचल नामक कवि जो राज सभा में हमेशा तारंगलोला नाम की कथा सुनाया करता था देख नहीं सका । अतः वह ईर्ष्या रूपी अग्नि में जलता था । एक समय प्रसंगोपात् राजा ने कवि की तारंगलोला कथा की प्रशंसा की इस पर सूरिजी ने कहा कि यह तो मेरी वारंगलोला कथा का अर्थ विन्दु लेकर कथा नहीं पर कंथा बनाई है। अतः कवि राजसभा में लज्जित हो गया । एक समय पादलिप्तसूरि मायावी मृत्युवत बन गये इससे नगर में हाहाकार मच गया । श्राखिर बड़ी सेविका में सूरिजी के शरीर को स्थापन करके स्मशान में ले जा रहे थे जब पांचाल कवि के मकान के पास आये तो कवि घर से निकल कर बड़े ही दुःख के साथ कहने लगा कि हाय ! हाय !! महासिद्ध विद्या के पात्र पादलिप्त सूरि ने स्वर्गवास किया । श्ररे मेरे जैसे मत्सर भाव रखने वालों की क्या गति होगी कि मैंने ऐसे सत्पात्रसूरिजी के साथ व्यर्थ मत्सर भाव रक्खा । इस प्रकार पश्चाताप करते हुए कवि ने एक गाथा कही । "सीसं कहवि न फुङ्कं जमस्स पालित्त यं हरं तस्य । १ ॥ | "
जस्स मुह निज्झराओं तारंगलोला नई बूढ़ा ॥
अर्थात् पादलिप्त जैसे महान आचार्य का हरन करने वाले यम का शिर क्यों न फूट गया जिस सुरि के मुखरूपी द्रह से तारंगलोला रूप महानदी निर्गमन हुई ।
पांचाल के शब्द सुनते ही सूरिजी ने सेविका में खड़े होकर कहा कि
"पांचाल' के सत्य वचन से मैं पुनः जीवित हुआ हूँ ।" इस प्रकार कहते हुए सब लोगों के साथ बाजा गाजा एवं हर्षनाद होते हुए सूरिजी अपने उपाश्रय पधारे ।
सूरिजी ने मुनियों की दीक्षा, श्रावकों के व्रत और मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा के विधि विधान के लिये "निर्वाण | कलिका" नामक ग्रन्थ का निर्माण किया इसके अलावा प्रश्नप्रकाश ज्योतिष का ग्रन्थ वग़रह कई प्रन्थों की रचना की ।
शिasive: साधु क्षिपत्वा यावत्समाययौ । वादित्रैर्वाद्य मानैश्च पंचालभवनाग्रतः ॥ ३३७ ॥ †' पंचालसत्यबचनाज्जीवितोहमिति ब्रुवन् । उत्तस्थौ जनताहपरावेण सह सूरिराट् ॥ ३४२ ॥
1. श्रावण यतीनां च प्रतिष्ठा दक्षिया सह । उत्थापना प्रतिष्ठार्हद्विम्बनां सदाममि ॥ ३४५॥ यदुक्तविधितो बुद्धा विधीयेतात्र सूरिभिः । निर्वाणकलिकाशास्त्रं प्रभुश्चक्रे कृपावशात् ॥ ३४६॥ प्र० च०
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[ श्री वीरपरम्परा
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