Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० १८२ वर्ष
[भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास
स्वयं बुड्ढा हो गया था और उसे कोई उपयुक्त सेना नायक नहीं दीखा, इससे चिंतित था और वचनपूर्ति करने की लालसा बलवती होती जा रही थी। .
"धूसी अपनी बाल्यावस्था में वाण विद्या में निपुण हो गई थी और राजा खारवेल को देख कर भी वह मोहित हो गई थी और साथ ही पिता का ऋण से उऋण होने के लिये यवन राजा से बदला लेना भी चाहती थी इसी से उसने बूढे कृषक राजा से कहा कि 'मैं ही सेना नायक होकर गुप्त रीति से सैना नायकोचित कार्य करूगी ।" वृद्ध कृषक पति भी इसकी इस बात से सहमत हो गयें और धूसी ने मर्द का वेष धारण कर विजिर युवकों का एक संगठन किया और स्वयं सेनापति का भार ग्रहण किया । अल्य समय में ही इस सेनापति के सुचारु और विश्वास ज नक कार्य को देख कर खारवेल का प्रेम उस पर अधिक परिमाण में बढ़ने लगा और राजा उसे हितेषी तथा आत्मीय मानने लगे। एक समय जब युद्ध का भारी प्रायोजन हो रहा था एक सुगत ने खारवेल के पास आकर युद्ध बन्द करने का उपदेश दिया और स्वयं दतिम को समझाने के लिये वेक्टिया की ओर चला । इस सुगत के समझाने पर दत्तिम चालाकी से परस्पर समाधान करने के लिए राजी हुआ और खारवेल प्रभृतियों को विजिर राजा के साथ विजिर देश में मिलने को कहा। धुसी जिसने कि सेनापति का पद ग्रहण किया था इस कूट नीति को पहले से ही जानती थी और उसे इस समय में भी मूल से शंका बनी हुई थी, तथापि जन्म भूमि को एक बार देखने की इच्छा से इस विषय में सहमत होकर राजा खारवेल के साथ ससैन्य विजिर राजधानी सिंहपथ में आई। इस समाचार को सुन दत्तिम ने रात्रि के समय ही सिंहपथ पर ससैन्य आक्रमण किया । धूसी यह सब आगे से ही जानती थी अतः उसने कुछ कृषक और उत्कल सेनाओं को लेकर बाहर की ओर से दत्तिम को घेर लिया, इस प्रकार दोनों
ओर से घिर जाने के कारण दत्तिम परास्त हुा । और उसकी कूट नीति विफल हुई। किंतु इस युद्ध में राजा खारवेल आहत होकर मृतवत् हो गये थे, उनकी यह अवस्था देख कर वीरता पूर्वक युद्ध करते हुए धूसी ने राजा खारवेल को बचा लिया और उनकी भारी सुश्र षा कर एक प्रकार प्राण दान दिया । राजा खारवेल उसका इस प्रकार साहस का काम देख उसके भारी कृतज्ञ हुए और इसका प्रत्योपकार करने का विचार उनके हृदय में स्थान पा चुका था।
__ "व्यापारियों के समस्त दुःख निवारण कर स्वास्थ्य हो जाने के अनंतर राजा खारवेल पातालपुरी को वापिस आये और वहीं धूसी के असली रूप को पहिचान लिया। राजकन्या धूसी को पहिचान लेने पर
और उसके साहसपूर्ण कार्य को देख कर उस पर प्रेमासक्त हुए और अपना विवाह उस राजकन्या धूसी से कर लिया । यहाँ से विजिरदेश को धूसी के पिता पूर्वराजा) को अर्पण कर खारवेल राजधानी की ओर लौटे।"
मगध आक्रमण दक्षिण और पश्चिम में अपना प्रभुत्त्व विस्तार कर गजा खारवेल ने उत्तर भारत में अपना अधिकार जमाना निश्चय किया। पहले कहा गया है कि नंदराजा कलिंग में अधिकार जमा लेने पर ऋषभदेव की मर्ति तथा अन्यान्य कितनी ही जैनमतियों को खंडगिरी से अपनी राजधानी में ले गये थे। राजा खारवेल जैन थे। इसलिए उनने उन मर्तियों को फिर से वापिस लाकर खंडगिरि में यथास्थान स्थापित करने का विचार किया। अपने राजत्व के अष्टम वर्ष में यानी ईस्वी सन पूर्व १६५ अन्द में खारवेल मगध की ओर रवाना हुए । इस वक्त राजमहल को घेर लेना उनका उद्देश्य था। उस
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