Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन
[ ओसवाल संवत् ३८८
सूरिजी ने पूछा कि श्रोताओं ! मेरे उपदेश का आप लोगों पर कुच्छ असर हुआ; हैं क्या कोई भव्य अपना आत्म कल्याण करने के लिये तय्यार है ? क्योंकि ऐसा सुअवसर बार बार मिलना मुश्किल है।
सभा में से सब से पहले बालकुमार भोपाल ने उठ कर कहा 'पूज्यवर ! मैं अपना कल्याण करने के लिये और तो क्या पर आपश्री के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा लेने को भी तैयार हूँ । मैं यह बात निश्चयपूर्वक कहता हूँ। इस बालकुमार का वैराग्यमय वचन सुन कर और भी कई भव्य आपका अनुकरण करने को तैयार हो गये । पर शाह रूपणसिंह और जाल्हण देवी को यह बात कब अच्छी लगने वाली थी उन्होंने अपने प्यारेपुत्र के इस प्रकार के शब्द सुन कर एक दम दुखी हृदय से कहा कि महाराज ! भोपाल अन समम बालक है इसकी बात पर विश्वास न किया जाय अभी यह दीक्षा में क्या समझता है ? और अभी हम ऐसे बच्चे को दीक्षा लेने भी कैसे देंगे ? अभी तो इसकी शादी भी करनी है इत्यादि ।
सूरिजी महाराज ने फरमाया कि रूपणसिंह । आप संतोष रक्खे ? जैन साधुओं का आचार है कि बिना माता पिता की आज्ञा किसी को भी दीक्षा नहीं देते हैं पर भोपाल की भावना का तो सभी को अनु मोदन करना ही चाहिये । भले ! भुक्त भोगी लोग जो कि परभव की तय्यारी में हैं ऐसे वृद्ध लोग इन्द्रियों के गुलाम एवं विषय विकार के कीड़े होते हुए संसार के दास बन रहे हैं तब यह बच्चा संसार त्यागने की इच्छा कर रहा है इस हालत में आपको अन्तराय देने की बजाय तो यदि पुत्र से सच्चा प्रेम है तो पुत्र के साथ दीक्षा लेकर स्वपर का कल्याण करे यही आपके लिये सुअवसर है । बस सूरिजी का उपदेश क्या था एक जादू ही था। रूपणसिंह ने सूरिजी के हुक्म को शिरोधार्य कर लिया। सभा विसर्जन होने के पश्चात् रूपणसिंह अपने मकान पर आया और भोपाल की माता जाल्हण देवी को पूछा कि तुम्हारा पुत्र भोपाल गुरु महाराज के पास दीक्षा लेता है । कहो तुम्हारी क्या मरजी है ? जाल्हण देवी ने कहा कि पुत्र ही क्यों पर श्राप भी तो दीक्षा लेने को तय्यार हुए हो फिर मुझे क्या पूछते हो ? "मैं पूछता हूँ कि तुम अपने पुत्र का साथ करोगी या घर में रहोगी?' जाल्हण देवी ने जवाब दिया कि जब आपकी इच्छा ही मुझे दीक्षा दिलाने की है तो मैं संसार में रह कर क्या करूंगी। अतः जाल्हणदेवी भी अपने पिती एवं पुत्र का अनुकरण किया ।
इस प्रकार नगर में कोई ३७ नरनारियाँ दीक्षा लेने को तैयार हो गये। अहा-ह कैसे लघु कम जीव थे कि जिनको केवल व्याख्यान से ही वैराग्य हो आया और इस प्रकार संसार के सुख सम्पति पर लात मार कर दीक्षा लेने को तयार हो गये । वस ! क्षयोपशम इसी को ही कहते हैं।
___ उपकेशपुर में आज सर्वत्र आनन्द मंगल हो रहा है दीक्षा का बाजा चारों ओर बज रहा है । मुक्ति रमणि के वर बंदोले खा रहे हैं । उपकेशपुर नरेश पुण्यपालादि श्रीसंघ ने दीक्षा महोत्सव के निमित्त जैन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव और पूजा प्रभावना करवा रहे हैं । इस दीक्षा का प्रभाव आस पास के प्रामों में भी इतना पड़ा कि वे लोग भी झुण्ड के मुण्ड आने लगे। शाह रूपणसिंह के ज्येष्ठ पुत्र क्षेमराज ने अपने माता पिता एवं लघु भ्राता की दीक्षा का खूब महोत्सव मनाया । बाहर से आने वाले स्वधर्मी भाइयों का अच्छी तरह स्वागत किया। इस महोत्सव में शाह क्षेमराज ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया।
शुभ मुहूर्त में सूरीश्वरजी महाराज ने भोपालादि ३७ नरनारियों को बड़े ही समारोह एवं जैन शास्त्रों के विधि विधान से दीक्षा दी और बालकुमार भोपाल का नाम धनदेव रख दिया ।
यों तो सूरिजी महाराज की सब साधुओं पर पूर्ण कृपा थी पर मुनिधनदेव एक तो बाल श्रमण था तथा
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