Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २१७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
से हम लोगों का भी कल्याण हो । सूरिजी ने कहा कि आपकी भक्ति एवं भावना बहुत अच्छी है पर जहाँ तक विहार हो सके वहां तक तो साधुओं को विहार करना ही चाहिये विहार से नये नये क्षेत्रों की स्पर्शता होती है जनता को नया २ उपदेश मिलता है चारित्र की विशुद्धता रहती है और पुरुषार्थ एवं उत्साह बढ़ता है इत्यादि । एक तो आपकी अवस्था ऐसी थी कि सुख पूर्वक विहार नहीं होता था दूसरा वहां के श्रीसंघ का आग्रह भी बहुत तीसरा राजा सारंगदेव के साथ अनेक भव्यों की कल्याण भावना ने भी सूरिजी पर काफी प्रभाव डाला अतः लाभालाभा का कारण जान कर सूरिजी ने फरमाया कि ठीक है फिलहाल मैं कुछ अर्सा तक यहाँ ठहरूंगा । आगे जैसी क्षेत्र स्पर्शना । आचार्यश्री ने नूतनाचार्य रत्नभसूरि को ५०० मुनियों के साथ विहार करने की आज्ञा फरमादी और कहा कि आप स्वयं विचार है अब आप पर गच्छ की जुम्मेवारी है अतः मरूधर सौरठ कच्छ सिन्धु पांचालादि क्षेत्रों में विहार कर सर्वत्र श्रीसंघ को उपदेश का लाभ देना तथा पूर्वोक्त प्रदेशों में विहार करने वाले साधु साध्वियों की सार संभार करते हुए जिनशासन की सेवा करना इत्यादि सूरिजी ने मानो एक शुभ आशीर्वाद ही दिया था।
प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने 'तथास्तु' कहकर कहा पूज्यवर ! आपश्री की आज्ञा तो मैं शिरोधार्य करता है परन्तु मेरा दिल आपश्री की सेवा से अलग रहना नहीं चाहता है फिर भी आपश्री की इस वृद्धावस्था में मैं दूर कैसे रह सकता हूँ ? इस पर सूरिजी ने फरमाया कि तुमारा कहना ठीक है पर सब साधु एक ही स्थान में रहने में क्या लाभ है साधुओं को तो विचरते रहना चाहिये जिसमें भी आप अब सूरिपद को शोभितकर रहे है आप पर सब गच्छ एवं शासन का भार है प्रत्येक प्रान्तों में विहार करने वाले साधुओं की सार संभाल भी करना जरूरी बात है । अतः मेरी आज्ञा है कि आप बिना विलम्ब आनन्द से विहार करे और मेरी आज्ञा का पालन करना यही मेरी सेवा है इत्यादि।
आचार्य रत्नप्रभसूरि ने सूरिजी की आज्ञा से ५०० साधुओं के साथ उपके शपुर से बिहार किया और मरूधर में घूम कर अहिंसाधो का खूब प्रचार कर रहे थे आचार्यश्री सिद्धसूरि उपकेशपुर में परनिर्वृितिमें अन्तिम सलेखना कर रहे थे आचार्य रत्नप्रभसूरि मरूधर में विहार करते थे परन्तु श्रापका चित्त गुरुदेव के चरणों में था अतः वे चलकर पुनः उपकेशपुर पधारे और आप भाग्यशाली भी थे कि पूज्य गुरुदेव की अन्तिम सेवा का लाभ हासिल किया क्यों कि आचार्यश्री ने आप के आने के पूर्व ही अनशन ब्रत कर लिया था इस समय आपका पधारना हो गया आपश्रीने सूरिजी की अन्तिम सेवा एवं खूब सहाज दिया और १५ दिन का अनशन पूर्वक परम समाधि के साथ आचार्यश्री सिद्धसूरि स्वर्ग पधार गये इस दुःखद घटना से श्री संघ को बहुत रंज हुआ पर वे करते क्या ? आखिर परिनिव्वाण का काउस्सागादि क्रिया की तत्पश्चात् प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की विद्यमानतामें केवल १५ दिनों में ही राजा सारंगदेव ने असार संसार से विदा लेली।
- आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने शिष्य भण्डल के साथ अभी मरुधर की धरा पर विहार कर रहे थे उसी समय का जिक्र है कि पूर्व प्रान्त की ओर भयंकर दुष्काल वर्त रहा था अतः पूर्व में विहार करने वाले आचार्य एवं मुनिगण पश्चिम की ओर आ रहे थे उसमें आर्य सुहस्तिसूरि भी थे और वे जीविनस्वामी की यात्रार्थ श्रावती प्रदेश में पधारे जब आप उज्जैन नगरी पधार कर भगवान महावीर की मौजूदगी में स्थापित मूर्ति अर्थात् जीवित स्वामी के दर्शन किये उस समय श्रीसंघ ने रथयात्रा का वरघोड़ा (जलूस) निकाला था वहां के राजा सम्प्रति अपने महलों में बैठा हुआ जलूस के साथ सूरिजी को देखा उपयोग लगाने से उनको जाति
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