Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
बस ! उन अबोध लड़कों ने वररूची का कहना स्वीकार कर लिया और उस बात को नगर में फैला दी । जब यह बात राजा के कानों तक पहुंची तो राजा को मंत्री पर बड़ा भारी गुस्सा आया । दूसरे दिन जब मंत्री सभा में आया तो राजा ने आंख उठाकर उसके सामने भी नहीं देखा मंत्री चतुर था वह समझ गया कि आज राजा नाराज है खैर सभा विसर्जन हुई । मंत्री अपने घर पर जाकर सोचने लगा कि राजा की नाराजी का कारण क्या है मैंने कोई अपराध तो किया ही नहीं है इत्यादि ।
इधर वररूची ने सभा का हाल सुन कर विचार किया कि ठीक हुआ राजा शकडाल पर नाराज है और वह क्रोध के मारा अन्ध बन कर अपना भांन भुल गया है अतः अब राजा के पास चलना चाहिये । वररुची राजा के पास गया और इधर उधर की बातें करते हुए मंत्री की बात भी निकाली। पररूची ने कहा राजन् ! केवल अफवाह पर विश्वास नहीं करना चाहिये ? आप अपने गुप्ताचरों को भेजकर निर्णय करवा लीजिये १ राजा ने अपने गुप्ताचरों को भेजे और वे जाकर नये बने हुए रास्त्र देख आये और राजा से सब हाल कह दिये । इस पर राजा ने सोचा कि आखिर मंत्री तो बड़ा ही कपटी एवं नमक हरामी ही निकला । अच्छा हुआ कि वररुची ने मुझे ठीक सावधान कर दिया वरना मैं राकडाल के हाथों से एक दिन जरूर मारा जाता। अब तो राजा का द्वष मंत्री पर और भी अधिक हो गया। और मंत्री ने भी इस बात को जान ली कि राजा मेरे पर सख्त नाराज है कभी ऐसा समय न आ जाय के मेरे सब कुटम्ब का ही नाश कर दे इस विचार से मंत्री अपने पुत्र श्रीयक से कहा कि कल मैं राज सभा में जाकर तलपुट नामक विष भक्षण करूँगा उस समय तू राज सभा में आकर तलवार से मेरा शिर उड़ा
ना । श्रीयक ने कहा कि पिताजी! आप क्या बात करते हो क्या पुत्र ही अपने पिता का शिर काट सक्ता है? मंत्री ने कहा कि हाँ ऐसा मौका आता है तो पुत्र पिता का भी शिर काट सकता है और इसमें ही सब कुटम्ब का भला है अर्थात् मंत्री ने अपने पुत्र को सब बात ठीक तौर पर समझा दी और वह बात श्रीयक के समझ हालका यच भाषन्ते भाषन्ते यच्च योषितः । उत्पातकी च या भाषा सा भवत्यन्यथानहि ॥५२॥ त्प्रत्ययार्थ राज्ञाथ प्रेषितोमन्त्रिवेश्मनि । पुरुषः सर्व मागत्य यथा दृष्टं व्यजिज्ञपत् ॥५३॥ तश्च सेवावसरे मन्त्रिणः समुपेयुषः । प्रणामं कुवेतो राजा कोपात्तस्थौ पराङ्मुखः ॥५४॥ द्भावज्ञोऽथ वेश्मैत्यामात्यः श्रीयकमब्रवीत् । राज्ञोऽस्मि शोपितः केनाप्य भक्तो विद्विपन्निव ॥५५॥ सावकस्माद स्माकं कुलक्षय उपस्थितः । रक्ष्यते वत्स कुरूपे यद्यादेशमिमं मम ॥५६॥ मियामियदाराज्ञ शिरश्चिन्धास्त दासिना । अभक्तः स्वामिनो वध्यः पितापीति वदेस्ततः ॥७॥ येयासौ मयि जरसाप्येवं याते परासुताम् । त्वं मत्कुल गृहस्तम्भोभविष्यसिचिरंततः ॥५८॥
यकोऽपिरुदन्ने वमवदद्गद्गदस्वरम् । तातघारैमिदंकर्म श्वपचोऽपि करोति किम् ।। ५९॥ मात्योऽप्यब्रवी देवमेवं कुर्वन्विचारणम् । मनोरथान्पूरयसि वैरिणामेव केवलम् ॥६०॥ राजा यम इवोदण्डः सकुटुम्बं निहन्तिमाम् । यावत्ता वन्ममैकस्य क्षयारक्ष कुटुम्बकम् ॥६१॥ खेत्रिपंतालपुटं न्यस्य नस्यामि भूपतिम् । शिरः परासोमछिन्द्याः पितृहत्यानते ततः ॥६२॥ त्रैवं बोधितस्तत्स प्रतिपेदे चकारच । शुभोदायधीमन्तः कुर्वन्त्यापातदारुणम् ॥६३।।
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