Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं० ८४ में हुआ था और पट्टावलियों में यह भी लिखा मिलता है कि आपश्री के शरीर का सिद्धगिरि पर जहां अग्निसंस्कार हुआ था वहाँ श्रीसंघ ने एक विशाल स्तूप भी बनाया था । शायद प्रस्तुत लेख उस स्तूप के साथ सम्बन्ध रखने वाला हो। और यह बात असम्भव भी नहीं है क्योंकि वीर निर्वाण के बाद ८४ वर्ष का जैसा रत्नप्रभसूरि के स्वर्गवास का उदाहरण मिलता है वैसा दूसरा कोई नहीं मिलता है । यह केवल मेरा अनुमान ही है, पर कभी २ ऐसा अनुमान सत्य भी हो सकता है।
परन्तु यहां एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि रत्नपभसूरि का स्वर्गवास सौराष्ट्र के शत्रुजय तीर्थ पर हुआ है तब बर्ली ग्राम शत्रुजय से सैंकड़ों मील दूर है, फिर बी से मिलने वाला शिलालेख रत्नप्रभसूरि से क्या सम्बन्ध रख सकता है ?
___ भगवान महावीर का मोक्ष पावापुरी में हुआ था पर आपके मन्दिर स्तूप अन्यान्य प्रदेश में भी मिलते हैं। इसी प्रकार रत्नप्रभसूरि भी एक महान उपकारी पुरुष हुये हैं और आपके भक्त लोग अनेक स्थानों में रहते थे। आपनी का उपकार भी बिलकुल निकट समय का ही था। यदि किसी भक्त जन ने भक्ति से प्रेरित हो उस समय तथा बाद में कुछ स्मृति-चिन्ह बनाया हो और उसमें लिख दिया हो कि भगवान महावीर के बाद ८४ व वर्ष में आपका स्वर्गवास हुआ था तो कुछ असंभव भी नहीं है । मैंने यह निर्णय की तौर पर नहीं पर एक कल्पना की तौर पर ही अनुमान किया है।
__इत्यादि उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से हम इस निश्चय पर आ सकते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के छठे पट्टधर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि हुये थे और उन्होंने वीरात् ७० वें वर्ष उपकेशपुर में पधार कर वहां के राजा और प्रजा के लाखों मनुष्यों को मांस मदिरादि दुर्व्यसन छुड़ा कर जैन धर्म में दीक्षित कर उस समूह का नाम 'महाजन संघ' रखा था । वही महाजन संघ आगे चल कर नगर के नाम पर उपकेशवश कहलाया और श्रोसवश श्रोसवाल उसी उपकेशवंश का रूपान्तर नाम हुआ था इत्यादि।
हम उपरोक्त प्रमाणों से जिस निश्चय पर आये हैं, जब तक इनके खिलाफ कोई विश्वासनीय प्रमाण न मिले वहाँ तक हमारा दृढ़ विश्वास है कि ओसवालों की उत्पत्ति वि० पू० ४०० वर्ष अर्थात् वीर निर्वाण के बाद ७० वर्ष में हुई थी और इसी प्रकार सब विद्वानों एवं ओसवालों को भी मानना एवं इस मान्यता पर विश्वास रखना चाहिये ।
Jain Ede
international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org