Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ३४२ वर्षं |
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आचार्य ने उस नवयुवक के सामने देखते हुये कहा कि महानुभाव ! आपके चेहरे से तो ज्ञात होता है कि आप किसी उच्च खानदान के वीर हैं । फिरे समझ में नहीं आता है कि तुम इन निरपराधी मूक प्राणियों की त्रास को नजरों से कैसे देख रहे हो ? बस, तरुण ने सूरिजी के यह बचन सुनते ही बड़ी वीरता से उठ कर उन भैंसे बकरों को एकदम छोड़ दिया और सूरीजी महाराज के चरणों में शिर झुका कर बोला कि भगवान ! श्राज हमको नया जन्म देने वाले आप हमारे धर्मपिता हैं। आप के इस परोपकार को मैं कभी नहीं भूल सकूंगा ।
श्राचार्य - महानुभाव ! इस में ऐसी कौनसी बात है हमने ऐसी कोई अधिकता नहीं की है ? यह तो हमारा कर्तव्य ही है और इसके लिये ही हम अपना जीवन अर्पण कर चुके हैं, पर मुझे आश्चर्य इस बात का है कि इन पाखण्डियों के चक्र में आप कैसे फंस गये ?
नवयुवक - महाराज ये लोग स्वर्ग भेजने की शर्त पर हम को यहां लाये थे। अगर आप श्रीमानों का पधारना न होता तो न जाने ये निर्दयी लोग मेरी क्या गति कर डालते । आपका भला हो कि आपने मुझे जीवन संकट से बचाया। अब मेरा जीवन तो श्रापश्री के चरणों में अर्पित है । यह कहते ही उस तरुण के हृदय की व्याकुलता के कारण नेत्रों से आंसुत्रों की धारा बहने लगी ।
श्राचार्य - महानुभाव ! घबराओ मत ! अगर आपको इस बात का अनुभव हो गया हो और अपने भाइयों को इस संकट से बचाना हो तो वीरतापूर्वक इस श्रासुरी नीच कुप्रथा को जड़मूल कि तुम्हारी तरह और किसी को दुःखी न होना पड़े ।
उखाड़ दो
युवक – महाराज ! आपका कहना सत्य है, और मैं प्रतिज्ञापूर्वक श्रापके सामने कहता हूँ कि आप हमारे नगर में पधारें । मैं थोड़े ही दिनों में इन पाखण्डियों के पैर उखाड़ दूंगा ! क्योंकि इन दुराचारियों का मुझे ठीक अनुभव हो गया है ।
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आचार्य - हे भद्र ! हम इतने ही साधु नहीं, पर हमारे साथ बहुत से साधु हैं । हम लोग रास्ता भूल कर इधर आ गये हैं और हमारे साधु न जाने किस तरफ गये होंगे ? कारण हम सब लोग इस भूमि की राह से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। अगर यहाँ से कोई ग्राम नजदीक हो तो उसका रास्ता हमको बतला दीजिये । युवक - पूज्यवर ! यहाँ से बारह गाठ पर हमारी भद्रावती नगरी है, अगर आप वहाँ पर पधार जावें तो हम लोग आपके लिये सब इन्तजाम कर देंगे । आचार्यश्री ने इस बात को स्वीकार कर लिया। बस, वह नवयुवक साथ में हो गया और क्रमशः सायंकाल होते ही भद्रावती नगरी में पहुँच गये। नगरी के बाहर किसी योग्य स्थान (बगीचे) में आचार्य श्री को ठहरा कर वह नवयुवक सूरिजी की आज्ञा लेकर नगर में गया ।
आचार्यश्री के साथ जो नवयुवक था वह इस भद्रावती नगरी के महाराजा शिवदत्त का लघु पुत्र
होश- हवास उड़ रहे थे, राज- अन्तेवर
देवगुप्त था । जिस राजकुमार के लिए राजा एवं राज सम्बन्धियों के में रोना-पीटना मच रहा था, नगर के लोग चिन्तातुर थे; कारण, दिन भर चारों ओर खूब शोध खोज करने पर भी देवगुप्त लापता था। नगर भर में जहाँ देखो वहाँ यही चर्चा चल रही थी कि आज राजकुंवर
देवगुप्त न जाने कहाँ चला गया कि जिसका अभी तक कुछ भी पता नहीं मिला है ।
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