Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भारतवर्ष पर चढाई कर दी। सिन्धु नदी पार करके जब युद्धभूमि में दोनों सेनाओं का सामना हुआ, तब चन्द्रगुप्त की सेना के मुकाबिले में सेल्यूकस की सेना न ठहर सकी। सेल्यूकस को लाचार होकर पीछे हटना पड़ा और चन्द्रगुप्त के साथ उसी की शर्तों के मुत्राफिक सन्धि कर लेनी पड़ी। जिसके अनुसार ५०० हाथियों के बदले चन्द्रगुप्त को सेल्यूकस से परोपनिसदै, एरिया और अरचोजिया नाम के तीन प्रान्त मिले, जिनकी राजधानी क्रम से आज कल के काबुल, हिरात और कन्धार तीन नगर हैं । सन्धि को दृढ़ करने के लिये सेल्यूकस ने अपनी बेटी 'हेलेन' भी चन्द्रगुप्त को दी। इस प्रकार हिन्दुकुश पहाड़ तक उत्तरी भारत चन्द्रगुप्त के हाथ में आ गया। जब विदेशियों के साथ भी उनकी यह वीरता है तो भारत के लिये तो कहना ही क्या है ? भारत के सम्राट होने का सर्व प्रथम महत्व चन्द्रगुप्त को ही मिला है।
सम्राट चन्द्रगुप्त का धार्मिक जीवन मंत्री चाणक्य के लिये आप पहिले ही पढ़ चुके हैं कि इसका घराना जैन था। इसके माता पिता दृढ़तापूर्वक जैनधर्म पालन करते थे अतः चाणक्य जैन था इसमें किसी प्रकार का सन्देह हो ही नहीं सकता है। जब चाणक्य ने राजा चन्द्रगुप्त को पाटलीपुत्र का राजा बना दिया था तो उसकी इच्छा हुई कि चन्द्रगुप्त भी जैनधर्म को स्वीकार कर इस धर्म का विश्व में खूब जोरों से प्रचार करके स्वात्मा के साथ अनेक आत्माओं का कल्याण कर सकें इस हेतु से राजा चन्द्रगुप्त को धर्म का तत्व सुनाने के लिये प्रत्येक धर्म के साधुओं को आमन्त्रण किया। जब वे साधु आते थे तो उनके लिये एक स्थान मुकर्रर कर दिया था वहां उनको ठहरा देता था, तथा उनकी परीक्षा के निमित्त बारीक रेता डाल रक्खा था। जब राजा के पाने में देर होती तो वे साधु राजा के महल, जाली झरोकों दासिया स्त्रियां आदि पदार्थ देखने के लिये इधर उधर घूमते रहते थे। इससे मंत्री चाणक्य तथा राजा चन्द्रगुप्त समझ गया कि ये केवल नाम के ही साधु हैं। जब क्रमशः जैन मुनि भी आये तो वे जब तक राजा सभा में नहीं आये तब तक स्वाध्याय ध्यान ज्ञान में ही अपना समय व्यतीत करते थे। अतः राजा की श्रद्धा जैन मुनियों की ओर झुक गई । बाद जैन मुनियों से धर्म का स्वरूप सुन कर राजा चन्द्रगुप्त ने सकुटुम्ब जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और इसी धर्म के आराधन में संलग्न हो गया। पुरे प्रघोष चाणक्यस्ततश्चैवमकारयत, धर्म श्रोष्यति सर्वेषामपि पाखण्डिनां नृपः ॥ ततश्चाहूय तान्सर्वान् शुद्धान्त स्याद वीयसि देशे निवेशयामास स विविक्ते विविक्तधीः ॥ शुद्धान्ता सन्नदिग्भागे, चाणक्येनाग्रतोऽपिहि, अक्षेप्य लक्षं श्लक्ष्णं च लष्ट चूर्णं महीतले ॥ तत्रोपदेशनार्थ ते चाणक्येन प्रवेशिताः, ज्ञात्वा विविक्तं स्थानं तच्छुद्धान्तभिमुख ययुः ॥ स्त्री लोलास्ते स्वभावेन नृप स्त्रैणमसंयताः, गवाक्षे विवरैद्रष्ठुमुपचक्र मिरे ततः ॥ ते राजपत्नीः पश्यन्त स्तावदस्थुर्दुराशयाः, नयावदाययौ राजा निषेदुस्तुत दागमे । ततश्च चन्द्रगुप्ताय धर्म माख्याय ते ययुः, पुनरागम मिच्छान्तोऽन्तःपुर स्त्री दिदृक्षया ॥ गतेषु तेषु चाणक्यश्चन्द्रगुप्तम भाषत, पश्य स्त्री लोलताचिह्न वत्स पाखण्डि नामिह ॥ यावत्वदगनंतैर्हित्वदन्तःपुरमीक्षितम्, गवाक्ष विवरक्षिप्त लोचनैरजितेन्द्रयैः ।।
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