Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
इस मर्ति के बनाने से पाया जाता है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त की जैनधर्म एवं जैनमर्तियों पर अटूट श्रद्धा एवं भक्ति थी और उन्होंने सफेद सोने की मूर्ति बनाई थी इनके अलावा एक प्रमाण कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है कि सम्राट ने देवस्थानों के लिये एक ऐसी कठोर श्राज्ञा निकाली थी कि ।
"आक्रोशाद्देवचैत्याना मुत्तमं दंड मर्हति"
मतलब कि यदि कोई चैत्य ( मन्दिर ) के विषय में यद्वा तद्वा अपशब्द कह कर आशातना करेगा वह व्यक्ति भारी दंड का भागी होगा । ऐसा जिनशासन का भक्त यदि सफेद सोने की मति बनावे तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है ? अन्य २ साधनों से यह भी पता मिलता है कि इस मर्ति की प्रतिष्ठा सम्राट चन्द्रगुप्त ने श्रुतकेवली आचार्य भद्रवाहु से करवाई थी।
सम्राट चन्द्रगुप्त का महत्व पूर्ण जीवन जैन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समुदाय के लेखकों ने खूब ही विस्तारपूर्वक लिखा है । पर मैंने मेरा उद्देश्यानुसार यहाँ पर संक्षिप्त से ही लिखा है पर इसको पढ़ने से पाठकों को भली भांति ज्ञात हो जायगा कि सत्राट् चन्द्रगुप्त जैसे एक अद्वितीय राजकर्ता था कि केवल २४ वर्ष के राजत्व कालमें इसने अपने सम्राज्य की नहीं पर संसार भर की अच्छ उन्नति कर बतलाई थी इनके पूर्व सम्राज्य की इस प्रकार की सुन्दर व्यवस्था शायद ही किसी ने की हो इतना ही क्यों पर आज कहलानेवाली सभ्यता एवं सत्ता भी उन सम्राट् की राज व्यवस्था देख कर अपना गौरव भरा शिर उनके चरणों में नवाती है। ___जब हम धर्म की ओर देखते है तो सम्राट् ने अपना जीवन में अधिकत्तर धर्म को ही स्थान दिया था जैन धर्म का प्रचार के लिये तो आपने अधिक से अधिक प्रयत्न किया था आप पढ़ चुके हो कि सम्राट ने जैन धर्म को केवल भारत में ही नहीं पर पाश्चात्त्य प्रदेशों में भी जैन धर्म का प्रचार किया था और
आप अपनी अन्तिमावस्था में तो राज कार्य को हय समम आत्म कल्याण में लग गये थे हाँ चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अन्तिमावस्था में दीक्षा ली या नहीं ली इस बात का श्वेताम्बर दिगम्बर में मत भेद अवश्य है पर चन्द्रगुप्त ने अन्तिमावस्था में श्रारम कल्याण करने में सलग्न था इसमें दोनों समुदायों एकमत्त है।
सम्राट चन्द्रगुप्त का समय के विषय विद्वानों का कापी मतभेद है जिसके लिये हम सम्राट् सम्प्रति के जीवन के अन्त में यथा साध्य निर्णय करेंगे। यहाँ पर इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने मंत्री चाणक्या की सहायता से मगद का राज प्राप्त कर २४ वर्ष तक मगद की गादी पर निष्कटक राज किया था और अन्त में जैनधर्म की आराधना पर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। उजैनी नगरी धणी, ते थयो सम्पति राय । जातिस्मरण जाणियों, ये ऋद्धि गुरु पसाय । बली तिण गुरु प्रतिवेधियो, थयो श्रावक सुविचर । मुनिवर रूप कराविया, अनार्य देश विहार । पुण्य उदय प्रगटियो घणो, साध्या भारत त्रिखंड । जिन पृथ्वी जिनमंदिरे, मण्डित करी अखंड । बी सय तीडोत्तर वीर थी, संवत् सवल पंडूर । पद्मप्रभ प्रतिष्ठिया, आर्य सुहस्ती सूर । महा तणी शुक्ल अष्ठमी, शुभ मुहूर्त रविवार लिपि प्रतिमा पूठे लिखी, ते वाची सुविचार ।
तवन की डाल दूसरी गाथा ४से:
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