Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्षे ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
महाराजा बिन्दुसार - चन्द्रगुप्त के राज्य का उत्तराधिकारी उनका पुत्र बिन्दुसार हुआ । यह भी बड़ां पराक्रमी और नीतिज्ञ राजा था । यह जैन धर्म का उपासक एवं प्रचारक भी था। इसके शासनकाल में भी जैनधर्म उत्थान के उच्च शिखर पर था । बौद्ध और वेदान्तियों का जोर मिटता जा रहा था । उनके दिन घर नहीं थे । जो राजा का धर्म होता है वही प्रायः प्रजा का होता है यह एक साधारण बात है । इसी नियमानुसार जैनधर्म का क्षेत्र बहुत ही बढ़ गया था। बिन्दुसार राजा शान्ति प्रिय एवम् संतोषी था । इसका राज्यकाल निर्विघ्नतया बीत रहा था। इसके शासन के समय में ऐसी कोई भी महत्व की घटना नहीं घटित हुई जिसका कि इस जगह विशेष उल्लेख किया जाय ।
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राजा अपनी प्रजा को पुत्र तुल्य समझता था तथा प्रजा भी अपने राजा की पूर्ण भक्त थी जैनधर्म का एक उद्देश्य शांति भी है जिसका अमल बिन्दुसार के साम्राज्य समय में विशेष था । इसने कई यात्राएं की। कुमारी कुमार तीर्थ पर तो यह राजा निर्वृत्ति भाव में कई बार संलग्न रहता था । लोकोपकारी कार्यों में राजा की अधिक रुचि थी । प्रजा के सुभीते के लिए जगह-जगह कुएं, तालाब सड़के और बगीचे बनाने में इसने विपुल सम्पत्ति व्यय की । श्रनेक विद्यालय एवं जिनालय इनके हाथ से प्रतिष्ठित हुए । कृषि, व्यापार और शिल्प की उन्नति के लिए भी बिदुसार ने विशेष प्रयत्त किया था ।
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सम्राट बिन्दुसार के समय में भारतवर्ष का व्यापारिक विकास बहुत हुआ । पश्चिमीय देशों के साथ चन्द्रगुप्त के समय में भारत का जितना व्यापारिक सम्बन्ध था, बिन्दुसार के समय में वह उससे बहुत अधिक बढ़ गया था | व्यापार के लिए बहुत से नये-नये मार्ग खुल गये थे । और दूसरे देशों साथ आपस में दूतों का दल बदल हुआ करता था । अर्थात् यहां के राजदूत दूसरे देशों की राज सभाओं में और दूसरे देशों के राजदूत यहां की राजसभा में उपस्थित रहा करते थे । मेगास्थनीज के चले जाने के पश्चात् सेल्यूकस नेकटार पुत्र "एटीओक्स" ने अपना नवीन दूत समूह सम्राट् बिन्दुसार के राजदरबार में भेजा। उसके पश्चात् मिश्रदेश के तत्कालीन राजा " टाल्मीकी डोलफस" ने भी 'डेश्रोनी सेकस' नाक राजदूत की प्रधानता में अपना एक दूत समूह भेजा। इससे प्रगट होता है कि उस समय भारत वर्ष का दूसरे देशों साथ बहुत गहरा सम्बन्ध था। इतना होते हुए भी इन देशों के ऊँची श्रेणी के विद्वान दूसरे देशों में कम आते जाते थे । इस विषय में सम्राट् बिन्दुसार के शासन की एक घटना प्रसिद्ध है एक बार सम्राट् बिन्दुसार ने यूनानी नरेश एण्टोक्स को लिखा था कि आप अपने देश का एक ऊँचा दार्शनिक हमारे देश में भेज दें। उसके बदले में हम आपको बहुरसी मूल्यवान वस्तुएं भेंट में प्रदान करेंगे । इसके उत्तर में एण्टीओक्स ने मृदुहास्य के साथ यह उत्तर दिया कि, "यूनान के तत्त्वज्ञानी मुद्राओं के मूल्य में नहीं बिका करते ।" इस उत्तर से साथ जाहिर होता है कि उस समय के सभ्य देश अपने विद्वानों की कितनी इज्जत किया करते थे ।
कुछ विद्वानों का मत है कि बिंदुसार ने अपने शासनकाल में दक्षिण प्रांत को जीत कर अपने पिता के साम्राज्य में मिला दिया परन्तु कुच्छ विद्वानों की राय है कि दक्षिण प्रान्त को चन्द्रगुप्त ने ही अपने साम्राज्य में मिला लिया था । कुछ भी हो बिन्दुसार ने अपने २५ वर्ष के शासनकाल में चन्द्रगुप्त के द्वारा जमाई हुई नींव को बिल्कुल ढीली न होने दिया बल्कि उसको और भी मजबूत बनाने की चेष्टा करते रहे ।
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