Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
सम्राट् सम्मति
सम्राट् सम्पति - मारत के सम्राटों में आपका तीसरा नम्बर है । ऐतिहासिक लेखों जैसा चन्द्रगुप्त और अशोक का हाल मिलता है इतना सम्प्रति का नहीं मिलता है फिर भी इस विषय के कुछ उल्लेख यत्र-तत्र अवश्य मिलते हैं । परंतु जैन लेखकों ने तो इसको त्रिखंड भोक्ता के नाम से लिखा हैं । शायद राजा सम्प्रति जैनधर्म उपासक एवं प्रचारक होने से ही समुदाय पक्षपात के कारण इसकी प्रसिद्धि के जितने चाहिए उतने उल्लेख नहीं किये हों तो यह स्वाभाविक ही है फिर भी वेदांतियों के पुराणों
बौद्धों के दानों में सम्प्रति को स्थान अवश्य मिला है। वे लिखते हैं कि सम्प्रति अशोक का पौत्र एवं उत्तराधिकारी था । अशोक की अन्तिम बीमारी के समय सम्प्रति अशोक की सेवा में था, अशोक के. देहांत के बाद पाटलीपुत्र के सिंहासन पर सम्प्रति का राज्याभिषेक हुआ था ।
बौद्धों के दिव्यावदान ग्रन्थ के २९ वें अवदान में इस प्रकार लिखा है कि "राजा अशोक को बौद्ध संघ को सौ करोड़ सुवर्ण का दान देने की इच्छा हुई, और उसने दान देना शुरू किया । ३६ वर्षों में उसने ९६ करोड़ सुवर्ण तो दे दिया पर अभी ४ करोड़ देना बाकी था जब अशोक बीमार पड़ गया, और उसने सोचा की जिन्दगी का क्या भरोसा है ऐसा समझ कर उसने ४ करोड़ का दान पूरा करने के लिए खजाने से बोद्धों के कुर्कुटाराम संघ में भिक्षुत्रों के लिए द्रव्य भेजना शुरू कर दिया ।
[ ओसवाल संवत् १९२
उस समय अशोक के पुत्र कुनाल और कुनाल का पुत्र 'सम्पदी' (सम्प्रति ) नामक राजकुमार युवराज पद पर था । अशोक की दान प्रवृति की बात सम्पदी को कह कर मंत्रियों ने कहा- राजा अशोक थोड़ी देर का महमान है, वह जो द्रव्य कुर्कुटाराम भेजा जा रहा है, जिससे उसे रोकना चाहिये क्योंकि खजाना ही राजाओं का बल है। मंत्रियों के कहने पर युवराज सम्पदी ने खजानची को धन देने से रोक दिया । इस पर अशोक अपने स्वर्णमय भोजन पात्र ही कुर्कुटाराम को भेजने लगा, तब अशोक के भोजन के लिए क्रमशः रौप्य लोह और मार्तिक पात्र भेजे गये, जिनका भी उसने दान कर दिया । उस समय राजा अशोक के हाथ में सिर्फ आधा आंवला (फल) बाकी रहा था। राजा बहुत विरक्त हुआ, मंत्रीगण और प्रजागरणों को इकट्ठा करके वह बोला"बोलो इस समय पृथ्वी में सत्ताधारी कौन है ? मंत्रियों ने कहा- 'आप ही पृथ्वी में ईश्वरसत्ताधारी राजा हैं।” आंखों से आंसू बहाते हुए अशोक ने कहा- तुम दाक्षिण्यता से झूठ क्यों बोलते हो ? हम तो राज्यभ्रष्ट हैं। इस समय हमारा प्रभुत्व मात्र इस श्रधमला पर है। पास में खड़े आदमी को बुला कर अशोक ने यह श्रार्द्धामलक उसे दिया और कहा - "भद्र ! मेरा यह थोड़ा सा काम कर कुर्कुटाराम जाकर मेरे वन्दन के स्वाथ यह अर्द्धामलक संघ को भेंट कर दें । उस आदमी ने अशोक के हुक्म से आराम में जाकर वह आधा आमला भिक्षुओं को दे दिया इस पर भिक्षु संघ ने अशोक का वह इच्छा के अनुसार दूसरे पदार्थ में मिला करके सारे संघ में बांट दिया ।
आखरी दान उसकी
"पद् त्रिंशत्तु समा राजा, भविताऽशोक एव च ।
सप्तति (संप्रति) दशवर्षाणि तस्य नप्ता भविष्यति ॥ २३ ॥
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मत्स्यपुराण अध्याय २७२
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