Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पद मिल गया हो और इस कारण वराहमिहिर कुपित हो जैन धर्म की दीक्षा को छोड़ कर भद्रबाहु की भद्रबहुसंहिता की स्पर्द्धा में ही वराहसंहिता नामक ग्रन्थ निर्माण किया हो तो यह बात संभव हो सकती है अतः, वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु अलग हैं और श्रुतकेवली चर्तुदशपूर्वघर भद्रबाहु अलग हैं।
इसमें वराहमिहिर का अस्तित्व शक सं ४२७ ( वीर नि० सं० १०३२) का बतलाया है।
३ -- भद्रवाहु ओर चन्द्रगुप्त के विषय में एक संदग्ध प्रश्न और भी है उसका भी यहाँ उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा। वह प्रश्न निम्नलिखित है ।
दिगम्बर लेखकों ने लिखा है कि चन्द्रगुप्त ने १६ स्वप्ने देखे और भद्रबाहु से उन स्वप्नों का फल पूछा । भद्रबाहु ने उन अनिष्ठ स्वप्नों का भविष्य कहा जिससे चन्द्रगुप्त ने वैराग्य को प्राप्त हो भद्रबाहु के पास दीक्षा ग्रहण की और दुष्काल के समय श्राचार्य भद्रबाहु मुनिचन्द्रगुप्तादि १२००० की संख्या में संघ को लेकर दक्षिण की ओर चले गये । भद्रबाहु का स्वर्गवास दक्षिण में हुआ। बाद चन्द्रगुप्त मुनि एक पर्व पर तपश्चर्या करते रहे, अतः उस पर्वत का नाम चन्द्रगिरि पहाड़ हो गया इत्यादि ।
इस विषय का प्राचीन प्रमाण न तो श्वेताम्बर ग्रन्थों में है और न दिगम्बर ग्रन्थों में ही मिलता है। हाँ श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पहाड़ पर एक शिलालेख में भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का उल्लेख जरूर है । पं० मुनिश्री कल्याणविजयजी की मान्यता है कि उस लेख का समय शक संवत् ५७२ के श्रासपास का है । यदि यह मान्यता ठीक है तो यह आसानी से खयाल किया जा सकता है कि उस समय के किसी चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के पास दीक्षा ली होगी। इस बात को पूर्वोक्त लेख ही सिद्ध कर रहा है। कारण, प्रस्तुत लेख में न नो भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा है और न चन्द्रगुप्त को मौर्य ही कहा है ।
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इस विषय का दिगम्बर समुदाय में सब से प्राचीन ग्रन्थ हरिषेणकृत वृहत्कथा कोष है । यह ग्रन्थ शक संवत ८५३ ( वि० सं० ९८८ ) में रचा हुआ है । इसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु के मुख से दुर्भिक्ष का हाल सुन कर उज्जैन के चन्द्रगुप्त ने दीक्षा ली। आगे चल कर उस चन्द्रगुप्त को दशपूर्वघर बना कर विशाखाचार्य नाम का उल्लेख किया है इस कथा से पाटलीपुत्र का मौर्य चन्द्रगुप्त से यह उज्जैन का चन्द्रगुप्त भिन्न है। तब श्रुतकेवली भद्रबाहु से उज्जैन के चन्द्रगुप्त को दीक्षा देने वाले भद्रबाहु स्वतः अलग सिद्ध होते हैं।
इनके अलावा पार्श्वनाथ वस्ती में शक संवत् ५२२ के आसपास का एक शिलालेख भी मिलता है, उसमें भद्रबाहु की भावि सूचना से संघ के दक्षिण में जाने का उल्लेख है पर उससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता है कि जिनकी दुर्भिक्ष सम्बन्धी सूचना से जैन संघ दक्षिण की ओर गया था वे भद्रबाहु श्रुतके - वली ही थे, परन्तु दिगम्बरों के लेखों से ही सिद्ध होता है कि वे भद्रबाहु श्रुतकेवली की परम्परा में होने वाले दूसरे भद्रबाहु थे, जिनकी निमित्तवेत्ता के नाम से प्रसिद्धि हुई थी, जिसका प्रस्तुत लेख निम्नलिखित हैमहावीरसवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमर्षि गौतमगणधर साक्षाच्छिष्यलोहार्य जम्बु-विष्णुदेवापराजित-गोवर्द्धन-भद्रबाहु- विशाख प्रोष्ठिल- कृत्तिकाय - जयनाम-सिद्धार्थ धृतिषेण- बुद्धिलादि-गुरुपरम्परीणक - ( क्र ) माभ्यागत महापुरुषसंतति समवद्योतितान्वय- भद्रबाहु स्वामिनाउज्जय न्याम - टांग- महानिमित्ततत्त्वज्ञानत्रैकाल्यदर्शिनानिमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्व संघ उत्तरापथाद्दक्षिणापथं प्रस्थितः "
श्रवणबेलगोल की पार्श्वनाथ वस्ती का लेख
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