Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
१४-चौदहवें स्वप्ने में महामूल्यवान रत्नों को तेज हीन देखा ? फल-बड़े मनुष्य एवं साधु जिन अपने खराब आचरणों से तेजहीन हो जायंगे, छापस में क्लेश, कदामह, निन्दा करेंगे, जनता में जंग मचायेंगे, सज्जनों को सुख से नहीं रहने देंगे इत्यादि ।
१५-पन्द्रहवें स्वप्ने में कुलीन राजकुमार को बैल पर सवार हुश्रा देखा ? फल-राजवंश मिथ्यात्वी पाखंडी ब्यभिचारी बहुभाषी, नीच पुरुषों की संगत करने से हलके आचार वाले होंगे। सत्पुरुष जैसे सज्जनों की अवहेलना करेंगे । धर्म से वेमुख हो धर्म और धर्मी पुरुषों की निंदा करेंगा--
१६-सोलहवें स्वप्ने में हाथियों के दो बच्चों को आपस में युद्ध करता हुआ देखा ? फल-गजा आपस में युद्ध करेंगे, साधारण लोग आपस में वैर भाव रक्खेंगे । एक दूसरे को नीचा गिराने की कोशिश करेंगे । आपस में इज्जत एवं धन की हानि पहुँचायेंगे ! इसी प्रकार साधु जिन क्षमा, दया, शील, संतोष को छोड़ कर आपस २ में द्वेष निंदा कलह कदाग्रह करेंगे। परिग्रह की ममता बढ़ायेंगी। यंत्र, मंत्र, तंत्र के नाम पर विचार गरीब लोगों को कष्ट पहुँचावेंगे इत्यादि ।
हे राजेन्द्र ! जो आपने रात्रि के समय १६ स्वप्ने देखे हैं जिससे भविष्य का बुरा हाल विदित होता है । इसमें भी जो महानुभाव धर्म अाराधन करेगा वह भविष्य में सुखी होकर परमपद को प्राप्त कर लेगा। सम्राटचन्द्रगुप्त आर्य भद्रबाहु के कहे हुये स्वप्नों का फल सुन कर अत्यन्त वैराग दशा को प्राप्त हुआ और श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी की पूर्ण कृपा से धर्म आराधन करने में संलग्न हो गया *
आचार्य भद्रबाहु के संघनायक का समय वीर निर्वाण सं० १५६ से १७० तक का है तब मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण वीर निर्वाण संवत् १५५ का है और २४ वर्ष उन्होंने राज्य किया, अतः बी० नि० सं० १७९ में चन्द्रगुप्त का स्वर्गवास हुआ इससे प्राचार्य भद्रवाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त समकालीन कहे जा सकते हैं, परन्तु इतिहासवेत्ता पं० मुनिश्रीकल्याणविजयजी महाराज अपनी 'वीर निर्वाण संवत्
और जैनकाल गणना' नामक किताब में तित्थोगाली पइन्ना का प्रमाण देते हुये लिखते हैं कि श्रतकेवली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट् चद्रगुप्त किसी तरह से समकालीन नहीं हो सकते हैं क्योंकि भद्रबाहु का स्वर्गवास वि०नि० १७० वर्ष का है तब चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय वी० नि• सं० २१० का है इत्यादि । जिसको हम राजप्रकरण में स्पष्टीकरण करके बतलावेंगे, परन्तु इतना कह देना आवश्यक है कि प्राचार्य हेमचन्द्र सूरी ने अपना परिशिष्ट पर्वकै नामक ग्रन्थ में मौर्य चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय वीर निर्वाण स० १५५ का लिखा है । यह विषय खास विचारणीय है, जिसकी चर्चा हम आगे चल के करेंगे।
यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि प्रथम आर्य भद्रबाहु जो संभूतिबिजय सूरि के बाद गच्छनायक हुये थे वे चतुर्दशपूर्वधर एवं श्रुत केवली थे और आपके समय बारह वर्षीय दुष्काल भी पढ़ा था।
जैसे श्वेतांबर साहित्य में चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्ने का कथन है, वैमें दिगंवर साहित्य में भी चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न देखना और भद्रबाहु ने उसके फल कहना भी लिखा है। यदि पं० कल्याण विजयजी के मतानुसार भद्रबाहु और चंद्रगुप्त समकालीन ही नहीं हैं तो यही मानना होगा णि यह भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त कोई दूसरे होंगे नो ऊपर बतलाये गये हैं। 8 एवंच श्रीमहावीर मुक्तेवर्षशतेगते, पंचपंचासादधिके, चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृप ।
परिशिष्ट पर्व सर्ग लोक ३३६
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