Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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घि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
थे प्रथम विभाग जलसेनापति के सहयोग से जलसेन का शासन करता था। द्वितीय विभाग के अधिकार में सैन्य-सामग्री और रसद वगैरह रहता था। रण वाद्य बजाने वाले, साइस, घसियारे आदि का प्रवन्ध भी इसी विभाग से होता था। तृतीय विभाग पैदल सेना का शासन करता था। चतुर्थ विभागके अधिकार में सवार सेना का प्रबन्ध था। पंचम विभाग रथ सेना की देख भाल करता था और षष्ट विभाग हस्तिसैन्य का प्रबन्ध करता था । चतुरंगणी सेना तो बहुत प्राचीन काल से ही चली आ रही थी। पर जल-सेनाविभाग और सैन्य-सामग्री-विभाग चन्द्रगुप्त की प्रतिभा के परिणाम ही थे।
सेना की भर्ती-चाणक्य के अनुसार पैदल सेना के सिपाही ६ प्रकार से भर्ती किये जाते थे। यथा:-'मौल' जो बाप-दादों के समय से राज सेना में भर्ती होते चले आये थे, 'भृत' जो किराये पर लड़ने के लिये भर्ती किये जाते थे, 'श्रेणी' जो सहयोग के सिद्वान्तों पर एक साथ रहने वाली कुछ योद्धा जातियों में से भर्ती किये जाते थे, 'मित्र' जो मित्र देशों में से भर्ती किये जाते थे, 'अमित्र' जो शत्रु देशों में से भर्ती किये जाते थे और 'अटवी' जो जंगली जातियों में से भर्ती किये जाते थे।
सेना के अस्त्र-शस्त्र-कौटिलीय अर्थ-शास्त्र में स्थिर-यन्त्र' ( जो एक से दूसरी जगह फके जा सकें ) हलमुख' ( जिनका सिर हल की तरह हो ) 'धनुष, बाण, खंड, क्षुर-कल्प' जो छुरे के समान हो) आदि अनेक अस्त्र-शस्त्रों के नाम मिलते हैं । इनके मी अलग अलग २ बहुत से भेद थे।
दुर्ग के किले-चाणक्य के अनुसार उन दिनों दुर्ग कई प्रकार के होते थे और चारों दिशाओं में बनाये जाते थे निम्न लिखित प्रकार के दुर्गों का पता चलता है:-'श्रौदक' जो द्वीप की तरह चारों ओर पानी से घिरा रहता था। 'पार्वन' जो पर्वत की चट्टानों पर बनाया जाता था। 'धान्वन' जो रेगिस्तान या महा ऊसर जमीन में बनाया जाता था । इनके अलावा वहुत से छोटे छोटे किले गांवों के बीचों बीच बनाये जाते थे। जो किला ८०० गांवों के केन्द्र में बनाया जाता था उसे 'स्थानीय, जो किला ४.० गांवों के बीचोंबीच बनाया जाता था उसे 'द्रोणमुख', जो किला २०० गांवों के मध्य में बनाया जाता था उसे 'खार्व. टिक' और जो किला १०० गांवों के केन्द्र में रहता था उसे 'संग्रहण कहते थे।
नगर-शासक-मण्डल-जिस प्रकार सेना का शासन एक सैनिक मण्डल के अधीन था उसी प्रकार नगर का शासन भी एक दूसरे मण्डल के हाथ में था। यह मण्डल एक प्रकार से आजकल की 'म्यूनिसिपैलिटी' का काम करता था, और सैनिक-मण्डल की तरह ६ विभागों में बटा हुआ था। इस मण्डल में भी ३० सभासद थे और प्रत्येक विभाग चार सभासदों के आधीन था । इन विभागों का वर्णन मेगास्थनीज ने निम्न लिखित प्रकार से किया है:
प्रथम विभाग का कर्तव्य शिल्पकलाओं, उद्योग-धन्धों और कारीगरों की देखभाल करना था। यह विभाग कारीगरों की मजदूरी की दर भी निश्चित करता था। कारनाने वालों के कच्चे माल की देख भाल का काम भी इसी विभाग का काम था। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता था कि कहीं वे लोग घटिया या खराब सामान तो काम में नहीं लेते । कारीगर राज्य के विशेष समझे जाते थे। इसलिये जो कोई उनका अंग भंग करके उन्हें निकम्मा बनाता था उसे प्राण दण्ड दिया जाता था।
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