Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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दि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
मण्डप बनवाया और उस मण्डप के बीच में एक छिद्र ऐसा रख दिया कि पूर्णमा की मध्यरात्रि के समय जब चन्द्रमा ठीक उस मण्डप के ऊपर आया और मण्डप के बीच में उसका प्रतिबिम्व पड़ने लगा, तब चाणक्य ने एक आदमी को ठीक समझा कर उस मण्डप के ऊपर चढ़ा दिया। चाणक्य ने मण्डप के अन्दर जहां पर चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, वहाँ पर दूध से भर कर एक थाली रखदी, जब बराबर पूर्णतया चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब उस दूध की थाली में पड़ने लगा तब चाणक्य ने उस गर्भवती देवी को बुलवा कर उसे चन्द्रमा से प्रतिविम्वित उस दूध की थाली को दिखाया। उस समय दूध की थाली में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब साक्षात् चन्द्रमा के समान प्रतीत होता था। चाणक्य ने उस देवी को पीने की अनुमति देदी । वह बड़े चाव से उस थाली के मुँह लगाकर पीने लगी । जैसे जैसे वह थाली के दूध को पीती गई तैसे २ चाणक्य के संकेत करने पर मण्डप पर चढ़ा हुआ मनुष्य मण्डप के छिद्र को ऐसी खूबी से आच्छादित करता रहा कि दूध की थाली में चन्द्रमा का प्रतिविम्ब भी दूध के साथ-साथ चलता हुआ मालूम होने लगा। जिससे कि उस गर्भ वती देवी को साक्षात् चन्द्रमा पीने का विश्वास होगया। इस प्रकार चाणक्य ने अपनी चतुरता से दोहला पूर्ण करवा दिया । तत्पश्चात् चाणक्य वहां से चला गया और द्रव्य के लिये किसी धातुवादी की शोध में भ्रमण कर रहा था। इधर दोहला पूर्ण होने पर नवमास-बाद उस देवी की कूख से चन्द्रमा के समान सौम्यता को धारण करने वाला और सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उसकी माता को चन्द्रमा का पान करने का दोहला उत्पन्न हुआ था इसीलिये उस बालक का नाम “चन्द्रगुप्त रखा गया ।
"एक समय की बात है, जब कि चन्द्रगुप्त अन्य लड़कों के साथ पशु चरा रहा था, उन्होंने एक खेल खेलना शुरू किया । इस खेल को “राजकीय खेल” कहते थे। चद्रगुप्त स्वयं राजा बना अन्यों को उसने उपराजा आदि के पद दिये । कुछ को न्यायाधीश बनाया गया। कईयों को राजा के गृह का अधिकारी बनाया। कई चोर और डाकू बनाये गये । इस प्रकार सब कुछ निश्चित करके वह न्याय के लिये बैठ गया । गवाहियां सुनाई गई । जब देखा कि दोष अच्छी तरह सिद्ध हो गया, तब न्यायाधीशों के फैसले के अनुसार राजा ने कचहरी आफीसरों को आज्ञा दी कि अभियुक्तों के हाथ-पैर काट डाले जायं । जब उन्होंने कहा"देव हमारे पास कुल्हाड़े नहीं हैं, तब उसने उत्तर दिया- 'यह राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा है कि इनके हाथपैर काट डाले जायं यदि तुम्हारे पास कुल्हाड़े नहीं हैं तो लकड़ो का डण्डा बनाओ और उसके आगे बकरी के सींग लगा कर कुल्हाड़ा बनालो' । उन्होंने वैसा ही किया । कुल्हाड़ा बन गया तब हाथ-पैर काट डाले गये । चन्द्रगुप्त ने हुक्म दिया ‘फिर जुड़ जावे' हाथ-पैर । बस हाथ पैर फिर जुड़ गये" ।
वास्तव में बचपन के ही संस्कार भविष्य में भाग्य निर्माता होते हैं। होनहार बालकों की प्रभा उनके उदय होने के पूर्व ही सूर्य-रेखाओं के समान फैलने लगती हैं । वे इसी अवस्था में खेले हुये खेलहंसी हंसी में किये गये संकल्प-बड़े होने पर कार्य रूप में परिणित कर दिखाते हैं, एक बार "विलिंगटन" से किसी ने पूछा जब कि वह निरा बालक था कि "ये टाइमपीस क्या कहती है ?" अबोध विलिंगटन ने
-इस वर्णन को असम्भव नहीं समझना चाहिये । यहाँ लेखक ने अपनी लेखन-चातुरी दिखाई है। बालकों के खेल को बालकों के अधं में लेना चाहिये । बालक चन्द्रगुप्त की आज्ञा-पालन होनी ही चाहये थी और हुई भी सही। बालक बहुत बार अपने खेलों में मारा और जिलाया करते हैं । यह स्वाभाविक वर्णन है। (मौर्यसा० का० ६० पृ०-१.२) ।
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