Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
आपकी दीक्षा आचार्य यशोभद्र के करकमलों से हुई थी। आप चतुर्दश पूर्वधर एवं श्रुतकेवली थे। आपका जीवन लिखने के पूर्व कुछ शंकास्पद प्रश्नों पर लिखना जरूरी है ।
१-आचार्य भद्रबाहु के विषय में जितने लेखकों ने भद्रबाहु जीवन लिखे हैं, प्रायः उन सबने श्रुतकेवली भद्रबाहु । को वराहमिहिर के लघुभ्राता लिखा है । इतना ही क्यों, पर इन दोनों भ्राताओं की दीक्षा भी एक ही साथ हुई । दोनों चतुर्दश पूर्वधर थे ! दोनों ज्योतिष विद्या के धुरंधर विद्वान थे । और दोनों ने ज्योतिष विषय के महान् ग्रंथों की रचना की, जिन्होंके क्रमशः वराहमिहिरसंहिता और भद्रबाहुसंहिता नाम हैं । पर भद्रबाहु लघु होने पर भी उन को आचार्य पद प्राप्त होने से वराहमिहिर रूष्ट होकर * जैनधर्म का त्याग कर दिया, इत्यादि लिखा है।
पर जैन साहित्य का अवलोकन करने से किसी प्राचीन साहित्य में यह उल्लेख नहीं मिलता है कि श्रुतकेवलीभद्रबाहु वराहमिहिर के लघु भ्राता थे, पर कई प्रमाण इन से खिलाफ मिलते हैं कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ वराहमिहिर का कुछ भी सम्बन्ध नहीं था। इतना ही क्यों पर वराहमिहिर श्रुतकेवली भद्रवाहु के बाद कई आठ नौ शतादियों के पीछे हुआ था, जब वराहमिहिर और श्रुतकेवली भद्रबाहु के बीच आठ नौ शताब्दी का अन्तर है तो श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर को समसामयिक एवं दोनों को भाई कैसे मान लिया जाय ? अर्थात् श्रुतकेवली भद्रबाहु का समय वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी है, तब वराहमिहिर का समय वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी का है।
जब भद्रबाहु और वराहमिहिर समकालीन नहीं थे तो उनके निर्माण किये वराह संहिता और भद्रबाहु संहिता ज्योतिष के ग्रन्थ आज विद्यमान हैं वे किसने और कब लिखे ? इसका समाधान इस प्रकार हो सकता है कि विक्रम की छठवीं शताब्दी (वीर निर्वाण १०३२ ) में वराहमिहिर जो ऊपर बतलाया है उसका भाई भद्रबाहु होगा और उन दोनों ने जैन दीक्षा ली होगी । भद्रबाहु लघु होने पर भी उसको आचार्य
१ श्रीभद्रबाहुस्वामीतुश्रीआवश्यकादिनियुक्तिविधाता। व्यंतरीभूतवराहमिहिरकृत संघोपद्रवनिवारकोपसर्गहरस्तवनेनप्रवचनस्य महोपकारं कृत्वा, पंचचत्वारिंशत् ४५ गृहे, सप्तदश १७ व्रते, चतुर्दश १४ युग प्र० चेति सर्वयुः षट् सप्तति ७६ वर्षाणि परिपाल्य श्रीवीरात् सप्तत्यकधिशत १७० व० स्वर्गभाक् छ।
पट्टावली समुच्चय पृष्ठ ४४ ___"प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रबाहुद्विजोबांधवौषत्रजितौ । भद्रबाहोराचार्यपददाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेषमादृत्य वाराहीसंहितांकृत्वानिमित्तैर्जीवति ।"
बाल्पकिरणावली १६३ वराहोऽपि विद्वानासीत् । केवलमखर्वगर्व पर्वतारुढ़ः सूरिपदंयाचतेभद्रवाहाहसहोदर पार्थात् । भद्रबाहुनाभाषितःसः-वत्स ! विद्वानसि, क्रियावानसि,परंसगर्वोऽसि । सगर्वस्यसूरिपदं न दद्मः । एतत्सत्यमपि तस्मै न सस्वदे। यतो 'गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य ।' ततो व्रतं तत्याज । मिथ्थावं गतः पुनर्द्विजवेषं जग्राह । प्रबन्ध कोष पृष्ठ २
* सप्ताश्वि वेद संख्यं शक कालमपास्य चैत्र शुक्ला दौ। अर्द्ध स्तमितेभानौ, यवनपुरेसौम्यादिवसाये ॥ "पंचसिद्धान्तिका"
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