Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० पू० ४०० वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अटारू प्राम से प्राप्त वि० सं० ५०८ का शिलालेख जो कि इतिहासज्ञ मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज से प्राप्त हुआ है और आपने जिसका उल्लेख "राजपूताना की शोध खोज" नामक पुस्तक में भी किया है। इन सब साधनों के आधार पर श्रोसवालजाति की उत्पत्ति का समय विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी स्थिर होता है और पट्टावलियों के आधार से वि० पू० ४०० वर्ष । तथा ज्यों २ शोध का कार्य विशाल रूप धारण करेगा; त्यों २ ऐतिहासिक विषयों पर अधिकाधिक प्रकाश पड़ता जायगा ।
प्रायः १० वर्ष पूर्व मैंने "श्रोसवालजाति समय निर्णय" सम्बन्धी एक पुस्तिक लिखी थी। इस पुस्तक के द्वारा प्रस्तुत विषय पर भच्छा प्रकाश पड़ा। तथापि कुछ व्यक्तियों ने इसी विषय में कई लचर दलीलें उपस्थित की हैं, उनका समुचित समाधान करना ही मेरे इस निबंध का मुख्य उद्देश्य है।
उपकेश (ओसवाल) वंश के संस्थापक भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के छट्टे पट्टधर आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि थे । इस विषय का प्रस्तुत प्रन्थ में विस्तृत रूप से उल्लेख किया है । आचार्य रत्नप्रभसूरि वि० पू० ४०० वर्ष अर्थात् वीर निर्वाण सं० ७० में मरुधर प्रान्त के उपकेशनगर में पधारे। अजैनों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाये। इस नवदीक्षित जनसमूह का नाम “महाजन वंश" रख एक सुदृढ़ संस्था स्थापित की। कालान्तर में वे उपकेशनगर से अन्य प्रान्तों में जा जा कर बसने लगे। वहां वे अपने आदि स्थान के नामानुसार "उपकेशवंशी" कहलाने लगे। संभवतः यह नामसंस्कार मूल समय के पश्चात् ही चौथी शताब्दी में हुआ हो इसका एक कारण यह भी है कि महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा के पश्चात् ३०३ वर्ष में उपकेशपुर में महावीर मूर्ति के ग्रन्थीछेद का उपद्रव हुआ तब से कई उपकेशपुर के निवासी लोग उपकेशपुर का त्याग कर अन्य नगरों में जा जा कर वसने लगे और वहाँ के लोग उपकेशपुर से आने वाले को उपकेशी कहने लगे हों और बाद में उस उपकेश शब्द ने उपकेशवंश का रूप धारण कर लिया हो तो यह संभव हो सकता है। जब हम वंशावलियां देखते हैं तो उसमें भी विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशवंश के आमतौर से उल्लेख मिलते हैं इससे हमारा ऊपर का कथन और भी पुष्ट हो जाता है।
अब रही शिलालेख की बात इस विषय में यह समझना कठिन नहीं है कि उस समय शायद साधारण बातों के शिलालेख नहीं खुदाये जाते होंगे जैसे आज भी खुदाई काम होता है तो भूगर्भ से बहुत सी जैन मूर्तियां निकलती हैं उस पर शिलालेख नहीं हैं एवं सम्राट सम्प्रति के कई मन्दिर मूर्तियें इस समय मौजूद हैं पर उनमें से किसी पर शिलालेख नहीं है तथा ओसियां और कोरंटा के महावीर मूर्तियों पर भी शिलालेख नहीं है । दूसरे शायद क्वचित शिलालेख होंगे भी परन्तु मुस्लिम अत्याचारों से वे नष्ट हो गये होंगे। अतः उस समय और उसके आस पास के समय में जैन समाज की करोड़ों की तादाद और उनके लाखों मूर्तियाँ बनाने पर भी आज उस समय का कोई शिलालेख नहीं मिलाता है यही कारण है कि जैन शिलालेखों का समय विक्रम की नोवीं दशवीं शताब्दी से आरंभ होता है।
विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर का अपभ्रंश श्रोसियों नाम हुआ। इस दशा में उपकेश-वंश का नाम भी रूपान्तरित हो कर "ओसवाल" होना युक्तियुक्त ही है। वर्तमान "ओसवाल"
* मथुरा का कंकाली टीला आदि का खोद काम करने से कई मूर्तियां आदि प्राचीन स्मारक मिले हैं उसमें थोड़े पर शिलालेख हैं शेष पर शिलालेख नहीं हैं।
Jain Edu? 1998 ternational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org