Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता]
[वि० पू० ४०० वर्ष
प्राचीन शिलालेख लगा हुआ है। शिलालेख का समय वि० सं० १०१३ का है इससे अनुमान हो सकता हैं कि ओसवालोत्पत्ति का समय दशवीं, ग्यारहवीं शताब्दी का ही हो ।
समाधान-यह शंका केवल शिलालेख का संवत् देख कर ही की गई है न कि लेख को श्राद्योपान्त पढ़ कर । यदि सम्पूर्ण लेख दृष्टि में निकाल लिया होता तो इस शंका को स्थान नहीं मिलता। यही शिलालेख श्रीमान् बाबू पूर्णचन्दजी संपादित शिलालेख संग्रह प्रथमखंड लेखक ७८८ में ज्यों का त्यों मुद्रित हुआ है। शिलालेख खंडित है फिर भी शेष भाग को भी ध्यानपूर्वक पढ़ने पर यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि वह लेख न तो ओसवालों की उत्पत्ति का है, और न महावीर के मंदिर की मूल प्रतिष्ठा का ही, न किसी मंदिर बनाने वाले का, न प्रतिष्ठा करने वाले आचार्य का नाम है। इस लेख से तो ओसियां का अधिक प्राचीनत्व सिद्ध होता है । इस शिलालेख में ओसियों में प्रतिहारों का राज्य होना लिखा है, जिसमें वत्सराज प्रतिहार की बहुत प्रशंसा की गई है, ( देखो पृष्ठ १७९ ) तदनुसार विक्रम की ८ वीं शताब्दी में ओसियां वत्सराज के राजत्वकाल में एक ऐश्वर्यशाली नगर सिद्ध होता है। अतएव यह शिलालेख भी इस नगर की प्राचीनता प्रमाणित करता है यह शिलालेख स्थान २ पर अत्यन्त खंडित हो गया है । अतएव उसके कुछ आवश्यक अंग पाठकों की जानकारी के लिये हम यहां उद्धृत करते हैं:
___xxxप्रकट महिमा मण्डपः कारितोऽत्रxxभूमण्डनो मण्डपः पूर्वस्यां ककुभि त्रिभारा विकलासन् गोष्ठिकानुxxx तेन जिनदेवधाम तत्कारितं पुनरमुष्य भूषणंxx+ संवत्सर दशदत्यामंधिकायां वत्सरैस्त्रयो दशभिः फाल्गुन शुक्ल तृतीयxx जै० ख० पृष्ठ १६३
इन खंडित वाक्यांशों से यह वृतांत ज्ञात होता है कि जिनदेव नामक श्रावक ने वि० सं० १०१३ फाल्गुन शुक्ला तृतीया को किसी मंदिर के रंगमंडप का जीर्णोद्धार करवाया, पर यह ज्ञात नहीं होता है कि यह शिलालेख किस मंदिर का है ? क्योंकि प्रस्तुत शिलालेख दूसरे मंदिरों के खण्डहरों में प्राप्त हुआ था और इसकी रक्षा के निमित्त महावीर मंदिर में लगा दिया गया था।
यदि इस मंदिर को १०१३ में बना हुआ मान लें तो एक आपत्ति हमारे सामने ऐसी खड़ी हो जाती है कि वह हमें महावीर मंदिर को १०१३ में बनना मानने में बाध्य करती है और वह यह है किः
"आचार्य कक्कसूरि के समय मरकी का उपद्रव हुआ था उस समय महावीर मन्दिर में शांति पूजा पढ़ा कर भगवान् शान्तिनाथ की मूर्ति स्थापन की थी इस विषय का एक शिलालेख भी मिलता है।
"ॐ संवत् १०११ चैत्र सुदी ६ श्री कक्काचार्य शिष्य देवदत्तगुरुणा उपकेशीय चैत्यगृह अस्वयुज चैत्रषष्टयं शान्तिप्रतिमा स्थापनिय गंदोदकान् दिवालिकामासुलप्रतिभा इति" वायु लेखांक १३४
भला महावीर का मंदिर वि०सं० १० १३ में ही बना होता तो उसमें १०११ में शांतिनाथ की मूर्ति कैसे स्थापन करवाई जाती,अतः प्रस्तुत महावीर का मंदिर १०१३ में नहीं पर वि०सं०पू० ४०० में मंत्री ऊहड़ ने अपने निज द्रव्य से बनाया । देवी चीमुडा ने गाय के दूध और बालूरेत से महावीर प्रभु की प्रतिमा बनाई; जिस प्रतिमा को ७ दिन पूर्व ही निकालने से मूर्ति के वक्षस्थल पर निंबू फल जैसी दो गांठे रह गई। प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों द्वारा हुई । मंदिर प्रतिष्ठा सम्बन्धी ऐ पी महत्वपूर्ण घटना को उद्धृत शिलालेख में स्था न न मिले, यह असम्भव है । अतएव श्रोसियांजी का उपरोक्त उद्धृत
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