Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
मूर्ति के प्रन्थ छेद का एक उपद्रव हुआ । उस समय शान्ति स्नात्र पूजा पढ़ाई गईथी। उस पूजा में ९जीमणी
और ९ डाइ ओर स्नात्रिये बनाये गये थे, उनका उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है कि वे १८ स्नात्रिये १८ गोत्र के थे, पर यह निश्चय नहीं कहा जा सकता कि उस समय १८ गोत्र ही थे ? खैर यहां पर देखना तो यह है कि १८ गोत्रों और गजपूतों की उपरोक्त १८ जातियों का आपस में क्या सम्बन्ध है।
राजपूतों की १३ जाति और ओसवालों के १८ गोत्रों की ऊपर दी हुई इस तालिका से पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि इनमें न तो समय की समानता है और न किसी शब्द की समानता है। फिर समझ में नहीं आता है कि ऐसी अर्थशून्य निःसार दलीलें करके जनता में व्यर्थ भ्रम क्यों पैदा किया जाता है ? यह तो केवल “परेश्वर्य दर्शने असहिष्णु" बुद्धि काही प्रदर्शन करना है । अस्तु ऐसे निस्सार कवित्तों पर विश्वास करना अज्ञता का ही द्योतक है । श्रोसवालों के १८ गोत्रों की सृष्टि हुई है उसमें निम्न लिखित कारण हैं जैसे कि:
१- तप्तभट्ट-यह एक प्रसिद्ध पुरुष के नाम पर गोत्र हुआ है जिसको आज तातेड़ कहते हैं ।
२-बाप्पनाग-यह नागवंशी राव वाप्पा की स्मृति में गोत्र बना है जिसको आज बाफणा-बहुफणा कहते हैं ओर नाहटा जांघड़ा बैताला दफत्तरी बालिया और पटवा आदि इनकी शाखायें हैं ।
३-कर्णाट-- यह कर्णाट प्रान्त से आया हुआ समूह का नाम है। ४-बलाह-वह एक बलाहनगर से आये हुये जत्थे का नाम है। रांका बांका सेठ इनकी शाखा है। ५- श्रीश्रीमाल - यह श्रीमालनगर से आये हुए लोगों का गोत्र है ।
६-आदित्यनाग-यह आदित्यनाग नासक नागवंशी उदार एवं वीर पुरुष के नाम पर गोत्र हुआ है। चोरड़िया, गुलेच्छा, पारख, सामसुखा श्रीर गदइया आदि इनकी शाखायें हैं ।
७-माता भूरि के नाम पर भूरि गोत्र कहलाया। ८-कन्नोज से आये हुये कनौजिया कहलाये। ९-कुमट का व्यापार करने से कुमट कहलाये । १०-संघ में श्रेष्ट काम करने से श्रेष्टि कहलाये । ११-संचय करने से संचेती कहलाये।
इत्यादि कारणों से महाजन संघ के गोत्र बन गये और इन गोत्रों में ज्यों २ वृद्धि होती गई त्यों २ इनकी शाखायें फैलती गई । इनके अलावा बाद में भी जैनेतरों को जैन बनाये गये और इसी प्रकार कारणों से उनके भी गोत्रों का नाम संस्करण होता गया।
इस कथन से पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि पूर्वोक्त कवित्त में बतलाई हुई राजपूतों की १३ जातियों के साथ ओसवालों के १८ गोत्रों का क्या सम्बन्ध है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि ओसवालों के १८ गोत्रों का समय वि० पू० ४०० वर्षों का है । तब राजपूतों की पूर्वोक्त १३ जातियों का समय वि० की चौथी से सत्तरहवीं शताब्दी का है तथा राजपूतों की जातियों के कारण कुछ और ही हैं।
समझ में नहीं आता है कि श्रोसवालजाति का इतिहास लिखने वाले महाशयजी ने इतनी बड़ी भूल क्यों की होगी कि एक कल्पित कवित्त को अपनी ऐतिहासिक किताब में उद्धृत कर अपना खुद का तथा दूसरों का समय शक्ति और द्रव्य का व्यर्थ व्यय क्यों किया होगा ।
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