Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्षे
महेश्वरी जाति है उनमें कई जातियों के ऐसे भी नाम हैं कि मुर्दा, काग, कबु, चंडक. बुब, भूतड़ा, काबरा, सारडादि तो क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि मुदों से मुर्दा, चंडालों से चंडक, भूतों से भूतड़ा, कागों से काग और कबुओं से शामिल कबु आदि जातियाँ बनी हैं, क्या कोई बुद्धिमान इस कल्पना को सत्य मान लेगा ? नहीं, कदापि नहीं । तो फिर प्रोसवाल जाति के लिये ही यह क्यों कहा जाता है कि इसके अन्दर नामानुसार ढेढ़ियादि शूद्र जातियां हैं ?
यह तो हम ऊपर सिद्ध कर आये हैं कि ओसवाल जाति पवित्र क्षत्रिय वर्ण से बनी है । हाँ, क्षत्रिय वर्ण के लिये यह कहावत आज भी कही जाती है कि "दारूड़ा पीणा और मारूड़ा गवाणा" अर्थात् मदिरा पान करना और ढोला भरूवणादि के गीत सुनना और नशे की तार में मनमानी मस्करी करनी । अतः राजपूतों में हांसी ठट्टा मस्करी करने का रिवाज बहुत था । आचार्य रत्नप्रभसूरि आदि ने उन क्षत्रियों को मांस मदिरा तो छुड़ा दिया, पर उनके हांसी ठट्टा मस्करी करने का रिवाज था वह ज्यों का त्यों रह गया, जिसके लिए आज भी ओसवालों के गीत सुन लीजिये । वही राजपूतों के गीत गाये जाते हैं।
___ मारवाड़ में कई ऐसे भी ग्राम हैं कि जिन्हों के नाम चंडावल ग्राम, चामड़िया ग्राम, ढेढ़ियाग्राम, सांढिया ग्राम, भूत प्रामादि हैं । इन ग्रामों के नामों पर वहां के रहने वालों के नाम भी वैसे ही पड़ गये । देखिये उदाहरण के तौर परः--
ढेढियेग्राम के पोसवाल कहीं जा रहे थे। रास्ते में सांढिये ग्राम के पोसवाल मिल गये। उन्होंने हाँसी हाँसी में पूछा कि अरे ढेढ़ियो ! आज कहां जा रहे हो ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि सांढिया में सांढ मरे पड़े हैं, हम उन सांढों को घीसने को जाते हैं । बस, इस हाँसी से एक का नाम टेढिया और दूसरे का नाम सांढ पड़ गया और आगे चल कर यह नाम उनकी वंश परम्परा के लिये जाति के रूप में परिणित हो गये कि अद्यावधि इन दोनों जातियों के लोग कई ग्रामों में विद्यमान हैं।
____ चंडालिये इसी प्रकार चंडावल के ओसवाल चंडावल को छोड कर अन्य ग्राम में जा बसने से वे चंडालिये कहलाये। और चामडिया ग्राम से चामड़ कहलाये जैसे नागपुर से नागौरी, जालौर से जालोरी, फलोदी से फलोदिया इत्यादि ।
बलाई- रत्नपुरा के जागीरदार और वहां के रहने वाले बोहराजी लीछमणदासजी के आपस में मनोमालिन्य हो गया । उस समय कानून तो सत्ताधारियों की जबान में ही थे, वह चाइते वैसा ही अन्याय कर सकते थे। अतः बोहराजी अपना धन-माल गाड़ों में डालकर रात्रि समय गुप्त रीति से चल दिये, पर उन्हों को
*ॐ संवत् १५६५ वर्षे वैशाष वदि १३ र वौ ढेढीया नामे श्री उएसवंशे सं० पीदा भार्या धरणू पुत्र सं० तोला सुश्रावकेण भा० नीनू पुत्र सा० राण सा लपमण भ्रातः सा० आसा प्रमुख कुटुब सहितेन स्वयौर्थ श्रीअंचलगच्छेश श्रीभावसागरसूरीणामुपदेशेन श्रीअजितनाथ मूलनायके चतुर्विंशति जिनपट्टकारितः प्रतिष्ठितः श्रीसंघेन
बा० पू० शिलालेख नं० ५६८ यह ढेढीया गाव सौजत परगने में था और सांडिया चंडावल, चामड़िया नामक ग्राम आज भी सोजत परगने में विद्यमान हैं। इन्हीं गांवों के नाम जैन क्षत्रियों की जातियां बन गई हैं।
सातपन
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