Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४००६
प्रोसवंशोत्पत्ति विषयक शंकाओं का समाधान
ऐतिहासिक साधनों के आधार पर उपकेशवंश अर्थात् ओसवालवंशोत्पत्ति का समय निश्चित करना जटिल समस्या है । इस सम्बन्ध में जितने साधनों की आवश्यकता है; उतने साधन उपलब्ध नहीं हैं। यही बाधा भारतीय प्रत्येक विषय के इतिहास निरूपण में उपस्थित होती है । ऐतिहासिक साधनों की न्यूनता का मुख्य कारण गत शताब्दियों में मुस्लिम शासन की अत्याचार पूर्ण धर्मान्धता ही है। उन्होंने अपने युग में भारतीय इतिहास के प्रधान साधनों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। कई उत्तम २ पुस्तक भंडार जला दिये; भारतीय मन्दिर और मूर्तियों को खंडित कर दिया; अनेक कीर्तिस्तंभ एवं असंख्य शिलालेख नष्ट प्रायः कर दिये । इस प्रकार पार्दा जनता के धार्मिक अधिकारों पर संघातिक चोट कर ऐतिहासिक साधनों को भविष्य के लिये लुप्त प्रायः कर दिया। इतस्ततः प्राप्त हुये जीर्णावशिष्ट साधनों का भी बहुत कुछ अंश जीर्णोद्धार करते समय लक्ष्य न देने से अलभ्य हो गया। अंततोगत्वा जो कुछ भी ऐतिहासिक मसाला विद्वानों के हाथ लगा है. उन्हीं साधनों की सहायता से इतिहास की धार-भित्ति प्रस्तुत की जाती है। इधर पौर्वात्य और पाश्चात्य पुरातत्वज्ञों और संशोधकों की शोध खोज से इतिहास की कुछ सामग्री प्राप्त हुई है । वह अपर्याप्त होने पर भी इतिहास क्षेत्र पर अच्छा प्रकाश डालती है । जैसे कि :--
१- भगवान महावीर को ऐतिहासिक पुरुष मानने में एक समय विद्वत्समाज हिचकिचाता था, परन्तु पुरातत्वज्ञों की खोज के पश्चात् केवल महावीर को ही नहीं अपितु प्रभु पार्श्वनाथ को भी ऐतिहासिक महापुरुष एक ही आवाज से स्वीकार करता है । इतना ही नहीं किंतु अभी निकट भविष्य में ही प्राप्त काठिया बाड़ प्रान्त के अन्तर्गत प्रभास पाटण नगर के एक ताम्रपत्र ने तो भगवान नेमिनाथ को भी ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध कर दिया है, जो कि श्रीकृष्ण और अर्जुन के समकालीन जैनों के बाईसवें तीर्थङ्कर थे ।
२-- ऐतिहासिक प्रमाणों से मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त भी जैन सिद्ध हो चुके हैं और जिस सम्प्रति को लोग कालनिक व्यक्ति समझ बैठे थे; श्राज इतिहास की कसौटी पर एक जैन सम्राट प्रमाणित हुये हैं। यही क्यों ? किन्तु जो शिलालेख, स्तंभलेख एवं आज्ञापत्र इत्यादि आज तक सम्राट अशोक के माने जाते थे; उन सब लेखों को डाक्टर त्रिभुवनदास लेहरचंद ने इतिहास के अकाट्य प्रमाणों द्वारा सम्राट सम्प्रति के सिद्ध किये हैं । इस सम्बन्ध में नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के वर्ष १६ के प्रथम अंक में उज्जैन निवासी श्रीमान् सूर्यनारायणजी व्यास ने भी लेख लिख कर प्रकाश डाला है एवं श्री नागेन्द्र वसु ने भी यह सिद्ध किया है कि जो शिलालेख, स्तम्भलेख, आज्ञापत्र इत्यादि सम्राट अशोक के माने जा रहे हैं; वास्तव में प्रायः वे लेखादि सम्राट सम्प्रति के हैं।
३- कलिंगपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराज खारबेल, जिनके आदर्श कार्यों के उल्लेख में जैन और जैनेतर साहित्य प्रायः मौन था; किन्तु उड़ीसा की हस्तीगुफा के शिलालेख ने यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया कि महाराजा खारवेल जैन धर्म के उपासक ही नहीं अपितु कट्टर प्रचारक थे।
४- इसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का अनुमान था कि ओसवालजाति की उत्पत्ति दशवीं वि शताब्दी के निकटवर्ती समय में हुई होगी परन्तु आधुनिक ऐतिहासिक साधनों के आधार पर एवं कोटाराज्यान्तर्गत
१७५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org