Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ५५४ वर्ष ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उ.-हे नरेश ! प्रत्येक जीवों में अनन्त शक्ति है परन्तु उनके आत्मा पर कर्मरूपी आवरण लगे हुए हैं जिसमें जिनके जितने आवरण दूर हट जाते हैं उतनी २ शक्ति विकास में आ जाती है इसके लिए सुनिये, दो समान बलवान मनुष्य हैं एक के पास नई काबर दूसरे के पास पुरानी काबर है । क्या वे दोनों बराबर वजन उठा सकते हैं ? नहीं। इसका क्या कारण है ? मनुष्य तो दोनों बलवान हैं परन्तु काबर नई
और पुरानी का अन्तर है। बस जीव सरीखे हैं परंतु नये पुराने कर्मों का ही अंतर है। अतः मान लो कि जीव और शरीर अलग २ हैं।
६-प्रश्न-हे प्रभो ! यदि सब जीव बराबर हैं तो मैं पूछता हूँ कि एक मनुष्य बाण चलाता है वह बहुत दूर जाता है तब दूसरे का चलाया बाण नजदीक गिर जाता है इस कारण मैंने तो यह निश्चय किया है कि जीव और शरीर एक ही हैं।
उ०-हे राजन् ! एक पुरुष के पास बाण या उसकी सब साम्रग्री नई है तब दूसरे के पास पुरानी है तब क्या वे दोनों बराबर बाण को दूर फेंक सकेंगे ? नहीं । बस, यही कारण है कि जीव पुराने होने पर भी उसके शरीर इन्द्रिये आदि साम्रप्री नई पुरानी का अंतर है । अतः इस उदाहरण से समझ लीजिये कि जीव और शरीर भिन्न हैं।
७-प्रश्न-प्रभो! आपको युक्तिये तो बहुत याद हैं परंतु मैं भी पक्का खोजी हूँ। देखिये एक दिन कोतवाल ने एक चोर को लाकर मेरे सामने पेश किया। मैंने अपनी मान्यता की जाँच के लिये उस चोर के दो तीन चार एवं अनेक खंड करके देखा और खूब देखा परंतु कहीं भी जीव नहीं पाया । भला इस हालत में मैं कैसे मान लकि जीव और शरीर अलग २ हैं ?
उ-वाह राजन् ! तुम भी एक मूढ़ कठियारे के समान दीख पड़ते हो । जैसे एक समय बहुत से कठियारे एकत्र हो काष्ट लेने की गरज से जंगल में गये, वहाँ जाकर स्नान मज्जन देवपूजन करके रसोई बनाई ।सब ने भोजन किया। बाद एक कठियारे को कहा कि तू यहां ठहर जा इस अग्नि का संरक्षण करना। शायद अनि बुझ जाये तो यह आरण की लकड़िये हैं इससे अग्नि निकाल कर ससय पर रसोई बना के तैयार रखना हम काष्ट ले कर श्रावेंगे उसके अंदर से थोड़ा २ काष्ट तुमको दे कर बराबरी का बना लेंगे । बस, कठियारे काष्ट लेने को चले गये पीछे उस प्रमादी ने अग्नि बुझ जाने की परवाह न की। जब अग्नि बुझ गई तो उसने आरण की लकड़ियों के दो तीन चार एवं अनेक खंड करके देखा तो कहीं भी अनि नहीं पाई । बस, निराश हो कर बैठ गया। इतने में जंगल से कठियारे काष्ट लेकर आये तो न थी रसोई न थी अग्नि जब उसको पूछा तो जवाब दिया कि अग्नि तो बुझ गई थी लकड़ियों के टुकड़े २ करके सब टटोला परंतु कहीं भी अमि न पाई अतः मेरा क्या कसूर है, इस पर कठियारों ने कहा हे मूढ़ ! हे तुच्छ !! तुझे इतना मालूम नहीं है कि लकड़ियों के टुकड़े २ करके अग्नि की तलाश करते हैं इत्यादि उसका खूब तिरस्कार किया। बाद में उन्होंने आरण की लकड़ियों को घिस कर अग्नि निकाली और भोजन बना कर खा पी कर सुखी हुये । हे प्रदेशी ! तू भी कठियारे की भांति मूढ़, तुच्छ एवं मूर्ख है ।
. प्रदेसी-हे भगवान ! आपने इस विस्तृत परिषदा में मेरा अपमान किया, क्या आपके लिये ऐसा करना योग्य है ?
केशीश्रमण-हे राजन् ! आप जानते हो परिषदा कितने प्रकार की होती है ?
amanamamare
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