Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
वरगृह में रहता । भाग्यवशात् जिस दिन दोनों कुमार देहली पहुँचे उसी दिन राजा ने अन्तेवरगृह में प्रवेश किया । अतः राजकुमार प्रतिदिन दरबार में मुजरो करने को जाकर एक अश्व भेंट कर दिया करता था। ऐसे करते १८० दिनों में १८० अश्व! भेंट कर दिये । पर उसकी कुछ भी सुनवाई नहीं हुई । इधर तो उत्पल देव हताश हो रहा था उधर राजा राजसभा में आया । जब उत्पलदेव के अश्वभेंट का समाचार राजा ने सुना तो तुरंत ही कुमार को बुला कर पूंछा कि तुम क्या चाहते हो ? राजकुमार ने कहा कि मैं एक नगर आबाद करने के लिये भूमि चाहता हूँ । राजा ने कह दिया कि जहाँ ऊजड़ भूमि देखो वहाँ नयानगर बसा लो मेरी इजाजत है। बस फिर तो था ही क्या ? दोनों वीर वहाँ से चलते चलते मंडोर तक आये पर उनको कोई ऐसी भूमि न मिली कि नगर आबाद कर सकें। वहाँ से आगे चल कर एक समुद्र तट पर आकर देखा तो वहाँ उन्होंने भूमि पसंद कर ली क्योंकि जहाँ पानी की प्रचुरता होती है वहाँ सब बातों की सुविधा रहती है। खाद्य पदार्थ भी पैदा होता है जिससे व्यापार खुल उठता है इन फायदों को सोच कर उन्होंने वहीं छड़ी रोप दी अर्थात् नगर बसाने का निश्चय कर लिया।
इस बात की इत्तला भिन्नमाल में पहुँची कि वहाँ से हजारों लोग चल कर नूतन नगर में आ बसे । भूमि उसवाली होने से नूतन नगर का नाम उएस रख दिया। स्वल्प समय में नगर नौ योजन चौड़ा और १२ योजन लम्बा बस गया। मिन्नमाल में १८००० व्यापारी ९००० ब्राह्मणं और दूसरे लोग तो इतने थे कि जिनकी गिनती लगानी भी मुश्किल थी। इसका कारण राजा भीमसैन का जनता के प्रति सद्भाव नहीं पर क्रूर भाव ही था । अतः राजा के अत्याचार से दुखित हुई जनता उन दुःखों से मुक्त हो नूतनवास उएस नगर में आ बसी । जब व्यापारी लोग आ गये तो दूसरे वहां रह कर करें भी क्या ? व्यापारियों के साथ ब्राह्मण भी आ गये और दो २ व्यापारी + एक एक ब्राह्मण का निर्वाह भी कर देते थे । और उस नूतन नगर की अधिष्ठात्री चामुडा देवी की स्थापना कर दी।
१ ढेलीपुरे राजाश्रीसाधु तस्य ऊहडेन १८० (५५) तुरंगमा भेटिकृता उएसा संतुष्टो ददौ । ततो भिन्नमालात् अष्टादश सहस्र कुटुम्ब आगताद्वादश योजना नगरी जाता।
'उपकेश गच्छ पट्टावली' २ अष्टादश सहस्राणि, कुलानां वणिजां तथा; तद‘नि द्विजातीनामसंख्याः प्रकृतिरपि, सहादाय ययौ तत्र यत्रतनगरं कृतम् , नव योजन विस्तीर्ण दैध्य द्वादश योजनम् ।
'उपकेश गच्छ चरित्र' २ कई प्राचीन वंशावलियों में इस विषय के कवित्त भी मिलते हैं जैसे - गाड़ी सहस गुण तीस, भला रथ सहस्त्रग्यारे, अट्ठारह सहस्र असवार पाला पायक नहीं कोई पारे उट्ठी सहस अट्ठार, तीस हस्ती मद जरता; दश सहस्र दुकान वणिक व्यापार करता। नव सहस्र विप्र भिन्नमाल से मणिधर साथे माँडिया;राव उपलदे मंत्री ऊहड़,घरबार साथे छाँड़िया।।
द्वाभ्यां वणिग्भ्यां तक विप्रवृत्तिः प्रकल्पिता पाद्र देवी च चामुडा तत्स्थ लोक कुलेश्वरीः। पिता पुत्रश्च यत्रोभौ वाणिजौ व्यवहारिणौ षण्मासी तस्थुषो जातु मिलितौ न मिथ क्वचित
'उपकेशगच्छ चरित्र' mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
www.gerary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only