Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० ० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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आरण्यक तपस्ययाँ, नमस्ययाँ जगत्यपि । सक्तः शक्तान्तरं गाऽरि विजये भवतीर भूः ॥ सर्वदेवप्रभु सर्व देव सद्ध्यान सिद्धिभृत् । सिद्धिक्षेत्रे पिपासुः श्री वारणस्याः समागमत् ।। बहुश्रत परिवारो विश्रान्तस्तत्र वासरान् । काँश्चित प्रबोध्यतं चैत्यव्यवहार ममोचयत् ।। स पारमार्थिकं तीव्रं धत्ते द्वादशधा तपः । उपाध्याय स्ततः सूरि पदे पूज्येः प्रतिष्ठितः ॥ "प्रभाविक चारित्र मानदेव प्रबन्ध पृष्ठ १६१ '
उपाध्याय देवचन्द्र का समय विक्रम की पहिली या दूसरी शताब्दी का माना जाता है, श्रतः कोरंटपुर का महावीर मंदिर उस समय के पूर्व का बना हुआ था और उसकी प्रतिष्ठा उन्हीं रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई थी कि जिन्होंने उपकेशपुर में प्रतिष्ठा कराई थी ।
कोरंटपुर की प्राचीनता का एक और भी उल्लेख मिलता है जैसे कि :
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"उपके गच्छे श्रीरत्रप्रभसूरिः येन उसियानगरे कोरंटकनगरे च समकालं प्रतिष्ठाकृता रूपद्वयकरणेन चमत्कारश्च दर्शितः "
"कल्पसूत्र की कल्पद्र मकलिका टीका के स्थविरावली अधिकार में " इनके अलावा 'गच्छमतप्रबन्ध' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ २५ पर श्री श्राचार्य बुद्धिसागरसूरि लिखते हैं × × × “वि० सं० १२५ माँ कोरंटनगरना नाहड़ मंत्री सत्यपुर मां जिनमन्दिर बंधाव्यं तेमां महावीरप्रभु जी प्रतिमानी प्रतिष्ठा श्रीजज्जकसूरि करी 'जय उवीर सच्चउरीमंडण' अ चैत्यवन्दन मां तेनो पाठ छे वि० सं० १२५ मां कोरंटगच्छ जेना थी प्रसिद्ध थयो ते कोरंटनगरनी जाहोजलाली प्रवर्तती हती"
कोरंटगच्छ की उत्पत्ति तो ऊपर बतलाते हुये कनकप्रभसूरि से ही हो गई थी। शायद यह ज्जजगसूरि कोरं गच्छ के कोई श्राचार्य होंगे और मन्त्री के बनाये हुये किसी महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई होगी।
मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी ( वर्त्तमान में श्राचार्य) लिखते हैं कि :
यह मन्दिर अन्दाजन २४०० वर्ष का पुराना है । इसकी प्रतिष्ठा पार्श्वनाथ सन्तानिये श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज ने श्रीवीर निर्वाण से ७० वर्ष वाद प्रोसियोंजी के करके एक ही लग्न में की थी।
४ श्री तपागच्छीय पटटावल्यादि
हवे श्री पार्श्वनाथ ना प्रथमगणधर श्रीशुभेय नामे तष्यशिष्या शिष्याचाय्र्य चार्य हरिदत्त श्रीसमुद्रस्वामी । तस्य शिष्याचार्य्य श्री केशी । श्री वीरवारे केशी स्वामि । तस्य तस्स शिष्य श्री स्वयं प्रभसूरि । तस्य शिष्याचार्य्यं श्री रत्नमभसूरि प्रगट हुआ । तेहने श्रीवीर मुक्ति पछो वर्ष बावन आचार्य पद हुऔ । श्रीवीरमुक्ति गया पछी वर्ष पचेस्तरे ( ७० ) ओईसा नगरी चामुण्डा प्रतिबोधी घणा जीवने अभयदान देई साचिल्ल नाम दीधु । पुनः तेहीज नगर नो स्वामी परमार (सूर्यवंशी) श्रीउपलदेव प्रति धर्मोपदेश देई एक लापनें नवाणु हजार गोत्री (५-२ ) स्यू प्रतिबोध्या ति श्रीपाव' नाथमासाद थाप्यो । एरिज सूरिये प्रतिष्ठयो । तिहाँ थी उपकेशज्ञाति कहाणी | श्री रत्नप्रभसूरि ने उपकेशगच्छ लोके को इति चौथो पट ||
जैन साहित्य संशोधक खंड १ अंक ३ पृष्ठ ३ में मुद्रित वीरवंशावलि
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महावीर - मन्दिर के साथ दो रूप - कोरं टाजी तीर्थ का इतिहास पृष्ठ २
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