Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्षे सप्तत्यावत्सराणाँ चरमजिनपते(क्त जातस्य वर्षे । पंचम्याँ शुक्लपक्षे सुर गुरू दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्यैः सकल गुण युतैः सर्व संघानुज्ञातैः ।
श्रीमद्वीरस्य बिंबे भव शतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठा ॥ "उपकेशगच्छ चरित्र" "उपकेशगच्छे श्रीरत्नप्रभसूरियेन उएशनगरे कोरंटनगरे च समकालं प्रतिष्ठाकृता रूपद्वय कारणेन चमत्कारश्च दर्शिताः।"
___ "कल्पसत्र की कल्पद्रु म कलिका टीका स्थविरावलि" ततः श्रीमत्युपकेशपुरे, वीर जिनोशेतुः । प्रतिष्ठाँ विधिनाऽऽधाय श्रीरत्नप्रभसूरयः ॥ कोरंटकपुरंगत्वा व्योम मार्गेण विद्यया । तस्मिन्नेव धनुर्लग्ने, प्रतिष्ठाँ विदधुर्वराम् । श्री महावीरनिर्वाणात्सप्तत्यावत्सरैर्गतः। उपकेशपुरे वीरस्य सुस्थिरा स्थापनाऽजनि ॥
नाभिनन्दन जिनोद्धार" ___ इन पट्टावल्यादि प्रन्थों से निश्चय होता है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीरात् ७०वर्षे श्रावण कृष्णा चतुर्दशी के शुभ दिन उपकेशपुर में 'महाजनसंघ' की स्थापना करी और उसी वर्ष के माघ शुक्ल पंचमी के दिन शुभ मुहूर्त में शासलाधीश चरम तीर्थकर भगवान महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। वे मन्दिर आज भी ओसियां एवं कोरंटपुर में विद्यमान हैं।
विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशगच्छाचार्य श्रीयक्षदेवसूरि जो पहले बतलाए जा चुके हैं। श्राप एक समय सोपारपट्टन में विराजते थे। उस समय बज स्वामी के पट्टधर वनसैनाचार्य ने चार शिष्यों को दीक्षा दी और वे सपरिवार सोपारपट्टण यक्षदेवसूरि के पास ज्ञानाभ्यास के लिए आये । और वे शिष्यों को ज्ञानाभ्यास करवाने लगे । बीच में ही अकस्मात् श्राचार्य वनसैनसूरि का स्वर्गवास हो गया । बाद उन चारों शिष्यों को आचार्यश्री ने स्वशिष्यों से भी विशेष समझ कर खूब ज्ञानाभ्यास करवाया, इतना ही क्यों पर उन चारों मुनियों के बहुत से शिष्य करवा कर शुभ मुहुत्त में आगम विधि अनुसार क्रिया कल्प करवा कर वासक्षेप देकर सूरिपद से विभूषित किया, तत्पश्चात् उन चारों सूरियों ने प्राचार्य यक्षदेवसूरि का परमोपकार मानते हुए भूमंडल पर विहार किया ।
अहा ! हा! पूर्व जमाने में जैनाचार्यों की कैसी वात्सल्यता ! कैसी उदारता !! और शासनप्रति कैसी शुभभावना !!! कि समुदाय या गच्छ का किसी प्रकार का भेदभाव न रखते हुये एक दूसरे को किस प्रकार सहायता करते थे जिसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है। यही कारण है कि जैनधर्म की सर्व प्रकार से उन्नति हो रही थी।
अस्तु । वे चन्द्रादि चारों सूरीश्वर महान प्रभाविक हुये कि उन चारों के नाम पर चार कुल अथवा चार शाखा प्रसिद्ध हो गई और उन चार कुल एवं शाखाओं में बड़े-बड़े धुरन्धर आचार्य हुए, जिन्होंने जैनधर्म का खूब ही उद्योत किया । जैसे कि :
१-- चन्द्रसूरि से चन्द्रशाखा-जिसमें सर्वदेवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, विजयहीरसूरि, श्रादि तथा बड़गच्छ तपागच्छ पूर्णतालगच्छ आदि ये सब चन्द्रकुल में हुये ।
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