Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
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जो बालूरेती और मंत्री की गाय के दूध से तैयार कर रही हूँ । जब छः मास पूर्ण होगा तब मूर्ति सर्वांगसुन्दर बन जायगी। जिसकों पुरा छ मास होने पर ही निकाली जायगी।
- सूरिजी ने कहा देवी आप स्वयं मंत्रीश्वर के पास प्रगट हो सब हाल उसको सुनादो तो अच्छा होगा । देवी ने ऐसा ही किया कि रात्रि में उसने मंत्री के पास जाकर कहा कि मैं यहां की चामुडा देवी हूँ। गुरु महाराज की आज्ञा से यहां आई हूँ। तुम बड़े हो भाग्यशाली हो कि तुम्हारी गाय के दूध से मैं तुम्हारे मंदिर के योग्य मूर्ति बना रही हूँ । इत्यादि सब हाल सुना दिया और अंत में कहा कि तुम पाप के घररूप-सन्देह को शीघ्र त्याग कर देना । बस इतना कह कर देवी अदृश्य हो गई । सुबह होते ही मंत्री ने सूरिजी के पास आकर चरण कमलों में नमस्कार किया और अपने प्रश्न के उत्तर कि प्रार्थना की । सूरिजी ने कहा कि रात्रि में देवी ने तुमसे कह दिया है न ?
___ मंत्री ने कहा हां देवी ने तो कहा पर मैं पुनः आपसे सुनना चाहता हूँ। इस पर सूरिजी ने मंत्री को सब हाल कह सुनाया । सूरिजी से सब हाल सुन कर मंत्री को भगवान महावीर प्रभु की मूर्ति के दर्शन की इतनी उत्कंठा लगी कि उसी समय सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! पधारिये प्रभुर्विव निकलवा कर उसके दर्शन करवाकर हमारेजन्म को कृतार्थ बनावें। इस पर सूरिजी ने कहा मंत्रीश्वर जरा धैर्य रक्खो, अभी सात दिन की देरी है । जब यह मूर्ति सर्वांग सुन्दर बन जायगी तब अच्छे मुहूर्त में खूब समारोह के साथ लावेंगे। श्रद्दधानः सतद्वाक्यं, स्वमन्दिर मयाद् रयात् । सूरयोऽपि व्यधुानं, निश्या गाच्छा सनामरी ।। व्यजिक्षयदिदं देवी, प्रभोवीर जिनेशितुः । कुर्वाणाऽस्मि नवं विम्गं, षण्मासाचद् भविष्यति ॥ प्रभवः प्रोचिरेदेवि ! प्रत्यक्षी भूय तत्परः । सर्व मेतत्समाख्याहि, स्वमुखेन यथा तथम् ॥ साऽपि गुर्वाज्ञया गत्वा, तत्र प्रत्यक्षरूपिणी । श्रोष्ठिनं गत निद्रंद्राक प्राह विस्मित मानसम् ॥ भोः श्रोष्ठिन् । गुर्वनुज्ञाता, ऽयाता हं शासनामरी । गोस्राव हेतुं गदितुं, शृणु तत् प्रयताशयः ॥ स्वदोगक्षीरेण वीरस्य, कुर्वाणा प्रतिमां शुभाम् । बचे हैं मास्म तत्कार्षीः, सन्देहं गेह मेनसः ।। इत्युक्त्वा सा तिरोधत, सोऽपि मोह वशं वदः। प्रातर्गत्वा च नत्वा च, गुरू पादानुपाविशत् ।। संयोज्यपाणी सोऽपृच्छत् , प्रश्नं स्वीयमथप्रनुः। प्रोचे शासन देवो ते, आच चक्षे स्वयं निशि ॥ यद्यप्येवंपरं पूज्य,त्तथापि प्रतिपाद्यताम् । ततः सर्व यथा वृत्तं, गुरुराख्यात वानपि । व्याजिज्ञ पदथ श्रेष्ठी, शीघ्रं सँचलत प्रभो। यथा वीर जिनेशस्य, बिम्ब निष्कास्यतेऽधुना ॥ सूरयोऽपि विलम्बस्व, सादरः सप्तवासरीम। आने ष्यामः शुभे लग्ने, पूर्णीभूत मिदं जगुः ।। श्रेष्ठयपि प्राह तल्लग्नं, शुभं यत्र सुरी वचः । पूज्यादेशश्च तत्तर्णम, पूर्ण कुरु मतंममः।। अत्याग्रहत्तस्य पूज्या, श्चेलुश्चञ्चलत्तोज्झिताः । श्रेष्ठिना सहितास्तत्र, यत्र वीर जिनेश्वरः॥ तत्र स्वर्णमय यव, स्वस्तिकं कुसुमानि च । वीक्ष्य स्वयम् खनित्वोर्वी, श्रेष्ठी पाकाशयजिनम् ।। हृदये निम्बुक फल सम ग्रन्थि युगान्वितः। निःससार महावीरो, न्यून सप्त दिनत्वत्तः ॥ दिवि दुन्दुभयोनेदुर्भुवि मानव वादितः । नान्दी निनादः प्रसरन्, व्यानशे व्योम मण्डलम् ।।
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