Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ४०० वर्ष]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उत्साह फैल गया । महावीर मंदिर को आज सात वर्ष हो गुजरे थे। आज उपकेशपुर में वही ठाठ लग रहा है। हर्ष के वाजिंत्र चारों ओर बाज रहे हैं। नूतन मूर्तियों की अंज्जन सिलाका और पहाड़ी पार पाश्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े ही उत्साह के साथ हो गई। इसका समय वंशावलियों में वीर निर्वाण सं० ७७ माप शुक्लापंचमी का बतलाया है। ठीक है इतने बड़े मंदिर के बनने में शायद सात वर्ष तो लग ही गये होंगे।
उस मन्दिर के कम्पाउण्ड में देवी सच्चायका का भी एक मन्दिर बना दिया था जिसकी प्रतिष्ठा भी पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ हो सूरिजी के कर-कमलों से करवा दी थी । देवी सच्चायका उपकेशपुर के जैनों की गौत्र देवी कहलाती थी। जिसका प्रभाव जनता पर खूब ही हुआ था, तथा इसके अनुकरण में और भी कई नये मन्दिरों की वहाँ तथा आसपास के प्रदेश में सूरिजी ने प्रतिष्ठायें करवाई थीं।
____ महाराज उत्पलदेव का बनाया पार्श्वनाथ का मन्दिर विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक तो ठीक हालत में पूजित रहा । पर इस समय उपकेशपुर पर यवनों का एक बड़ा आक्रमण हुआ था और उन्होंने कई मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर नष्ट भी कर दिया । उस समय उपकेशपुर में एक वीरभद्र' नाम का साधु महावीर के मंदिर में ठहरा हुआ था और वह था भी विद्याभूषित, पर जब यवनों का आक्रमण होने वाला था तो संघ अप्रेसरों ने महावीरमन्दिर की मूर्ति के रक्षण निमित, मूल गंभीर की वेदी पर एक पत्थर की दीवार बनादी और वहाँ से बहुत से लोग चले भी गये ।
यवनों ने पहाड़ी के ऊपर के पार्श्वनाथ मन्दिर पर भी धावा बोल दिया। कुछ मूर्तियां खंडित कर डाली । देवी सच्चायका का मन्दिर भी तोड़ डाला । इस बुरी हालत में वहाँ के जैन लोग अपना जान माल लेकर रफूचक्कर हुये । जब जैनेत्तर लोगों ने पार्श्वनाथ के मूल मन्दिर से पार्श्वनाथ की मूर्ति उठा कर टूटे हुये देवी के मन्दिर से देवी की मूर्ति ले जा कर पार्श्वनाथ के मूल मन्दिर में रख दी। इस बात को उस जमाने के सब लोग जानते थे, पर समय व्यतीत होने पर पिछले लोग उस मन्दिर को देवी का मन्दिर ही मानने लग गये । पर वास्तव में यह देवी का नहीं पाश्वनाथ का ही मन्दिर था और यह बात निम्नलिखित प्रमाणों से साबित भी होती है, जैसे कि:
१-देवी का मन्दिर हो तो एक ही गम्भारा यानी एक ही देहरी होनी चाहिये, पर इस मन्दिर में तीन देहरी सामने और पास पास में भी देहरियाँ बनी हुई है जो जैन मन्दिर को साबित कर रही हैं। १ सिद्धस रिगुरुभ्राता, वीरदेवःसदापुरे । ओकेशेनिवसन्नासीत्, पाठयन्श्रावकार्मकान् ॥1 न भोगमनविद्याद्य, कलासु सकलासु यः । सिद्धःप्रसिद्धःसर्वत्र, सबभूव ततो गुणैः ।। श्रुत्वा प्रसिद्धं गर्विष्ठः, कोऽपी योगोतदाश्रये । एत्योवाच मुने! वारि, पाय्यतां तृषितोऽस्म्यहम् ॥
वीरदेव मुनौ तत्र, तिष्ठत्येवं प्रभावके । द्विपञ्चाशदधिकेषु, शतेषु द्वादशस्वथ ।। विक्रमाद्वियतीतेषूपकेश नगरे बलम् । तुरुष्काणामा जगाम, पौरलोकः पलायितः ॥ वीरदेवो नभोगामि, विद्याबल वशात् स्थिरः । अभूद् यावत्सुरासन्न, म्लेच्छ सैन्यमुपागमम् ।। ततः श्रीवीर विम्बस्य, पुरः पाषाण बीडकम् । दत्वाद्वारि निस्सार, तावन्म्लेच्छाउपागताः ॥
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