Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बाद राजा उत्पलदेव ने आचार्य रत्नप्रभसूरि से अभ्यर्थना की कि हे प्रभो ! अब मेरी वृद्धावस्था है यह चर्तुमास तो आप कृपा कर यहाँ ही करावें ताकि मैं यथाशक्ति धर्म श्राराधन कर सकू इत्यादि । सूरिजी ने अपने परम भक्त राजा उत्पलदेवादि की विनती स्वीकार कर वह चर्तुमास उपदेशपुर में ही करने का निश्चय कर लिया। इस पर उपकेशपुर नगर के भक्तगण का उत्साह खूब बढ़ गया और वे लोग अपना आत्म-कल्याण करने में तत्पर हो गये । वास्तव में सूरिजी का चर्तुमास महाराजा उत्पलदेव के धर्माराधन के लिए बड़ा ही लाभकारी हुआ और दूसरे लोगों ने भी यथाशक्ति धर्म का आराधन किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और आत्मकल्याण के विषय पर होता था । अतः कई नरनारियों ने सूरिजी के पास भगवती जैनदीक्षा को भी स्वीकार कर स्वकल्याण के साथ पर कल्याण करने में तत्पर हो गये । और कई भावुकों के बनाये हुए मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करवा कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की । एक समय अवसर पाकर राजा उत्पलदेव और मंत्री उहड़ ने सूरीश्वरजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो ! यों तो आपकी कृपा से हम लोगोंने यथाशक्ति थोड़ा बहुत धर्मकार्य किया ही है पर एक खास बात हमारे दिल में यह है कि हमारे यहां श्रपश्री के कर कमलों से किसी योग्य मुनिराज को आचार्य पद दिया जाय तो उसका हम लोग महोत्सव करके अपने जीवन को कृतार्थ बनायें । कारण, इस प्रान्त में यह कार्य अभी नहीं हुआ है। अतः सब लोगों की साग्रह उत्कंठा है। दूसरे आपश्रीजी की अवस्था भी वृद्ध होगई है। अतः हमारी इस प्रार्थना को स्वीकार कर हमारे उत्साह को बढ़ायें। सूरिजी ने कहा कि आपकी भावना बहुत अच्छी है, फिरभी मैं इसका विचार करूंगा। इस पर राजाने कहा इस बात के लिए आपको क्या विचार करना है? उपाध्याय वीरधवल आपके पद प्रतिष्ठित होने में सर्व गुण सम्पन्न हैं । अतः आप इनको आचार्य बना दें इत्यादि। राजा मंत्री और श्रीसंघ का अति आग्रह होने से सूरिजी ने देवीसत्यका की सम्मति ली पर देवी भी ऐसे सुचवसर को हाथों से कब जाने देने वाली थी । उसने सम्मति दे दी । अतः सूरिजी ने वीरधवल को सूरिपद देने का निश्चय प्रगट कर दिया। फिर तो था ही क्या ? राजा ने बड़े उत्साह से पट्ट महोत्सव की तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। केवल उपकेशपुर में ही नहीं पर उस प्रान्त में खूब चहल पहल मच गई। जिनमंदिरों में ठाई महोत्सव शुरु हो गये। कहा जाता है कि इस महोत्सव में राजा उत्पलदेव ने सवा करोड़ द्रव्य व्यय कर सुर्लभ बोधित्व उपार्जन किया था शुभ मुहूर्त में और स्थिर लग्न में आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने उपाध्याय वीरधवल को आचार्य पद से विभूषित बनाये, और आपका नान देवी सत्यका की सम्मति से यक्ष देवसूरि रख दिया साथ में ११ मुनियों को उपाध्याय, १५ मुनियों को वाचनाचार्य और १५ मुनियों को पंडित पड़ भी दिया था । उपकेशपुर में सूरिपद का यह महोत्सव पहिले पहल ही हुआ था । अतः इसका जनता पर खूब प्रभाव हुआ इतना ही क्यों पर कई ३७ पुरुष और ६० महिलाओं ने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की थी। सूरीश्वरजी के उपकेशपुर में चतुर्मास करने से जैनधर्म की खूब उन्नति एवं प्रभावना हुई ।
सद्गुरुपद नित बंदोरे भविका । चर्चित होत आनंदोरे || भविका० स० ॥ राजगृहि सर्व संघ मिलकर | विनति पत्र पठावे । बहुत से श्रीसंघ सामा आवे । गुरुपद शीश झुकावेरे || भविका० स० ॥ १ ॥ करजोरी पुन विनति करते है। संघ उपद्रव टालो |यक्ष मानभद्र नित्य सतावे | ताको विघन निवारोरे ॥
'श्री रलप्रभसूरि की बड़ी पूजा "
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