Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन 1
[वि० पू० ४०० वर्ष
हे राजन् ! जैनधर्म ईश्वर को अनादि मानते हैं और यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध भी है । अतः न ईश्वर कर्त्ता हर्त्ता है, न सृष्टि का रचयिता सिद्ध हो सकता है। दूसरे न ईश्वर जीवों को पुन्य पाप के ताने वाला ही सिद्ध होता है कारण जीव स्वयं कर्म करता हैं और स्वयं भोगता हैं। भला ! एक मनुष्य भंग पी ली तो क्या उसका नशा ईश्वर देता है या स्वयं श्रा जाता है ? भांग का नशा तो स्वयं आ जाता है । फिर निराकार ईश्वर को जगत के जाल में क्यों फंसाया जाता है ? तीसरे ईश्वर के कर्मों का अंशमात्र भी नहीं रहने से वे पुनः अवतार भी नहीं लेते हैं इत्यादि विस्तार से समझाया ।
हे राजन् ! जैन धर्म में मुख्य षट्द्रव्यों को माना है जैसे धर्मद्रव्य; अधर्मद्रव्य, श्राकाशद्रव्य, जीव द्रव्य, पुद्गलद्रव्य और कालद्रव्य ।
धर्मद्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकाय -जो अरुपी है सम्पूर्ण लोक व्यापी है। जीव और पुद्गलों को गमनसमय धर्मास्तिकाय सहायता देता है अर्थात् जीव और पुद्गल गमनागमन करते हैं इसमें धर्मास्तिकाय की ही सहायता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय जीव पुद्गलों को स्थिर रहने में सहायक है, आकाशास्तिकाय जीव और पुदगलों को स्थान देने में सहायक है और कालद्रव्य जीव और पुद्गलों की स्थिति को पूर्ण करता है। जीव द्रव्य अनन्त है और उपयोग यानी ज्ञान-दर्शन इसका गुण है और पुद्गल रूपी है सम्पूर्ण लोक व्यापक है । मिलना और बिछुड़ना इसका लक्षण है। इन छः द्रव्य में पांच जड़ हैं और एक जीव द्रव्य चेतन है तथा इन छः द्रव्यों में पांच रूपी और एक पुद्गल द्रव्य रूपी है। इन छः द्रव्यों में एक जीव द्रव्य उपादय है एक पुद्गल द्रव्य हय है और शेष चार द्रव्य ज्ञय हैं इत्यादि ।
हे नरेन्द्र ! जैनधर्म में नौ तत्त्व माने गये हैं जैसे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संबर निर्जरा, बंध और मोक्षतत्त्व | जीव अजीव के छः द्रव्य हैं वह पहले कह दिये हैं तथा पुन्य किसी भी दुःखी प्राणी को सुखी बनाना अर्थात् मन, वचन और काया से आराम पहुँचाना इसमें शुभ भावना से पुण्य होता है जिससे भवान्तर में सब अनुकूल सामग्री मिलती है एवं सुखों का अनुभव करते हैं और किसी जीव को दुःख देने से पापकर्मबन्धता है और भवान्तर में इसके कडुए फल से जीवन भर में दुःखों का अनुभव करना पड़ता है । आश्रव पुन्य पाप रूपी कर्म आने का कारण है तब संवर ( तत्वरमणता ) कर्म श्राने को रोकता है । वन्ध शुभाशुभअध्यवसायों से कर्म का बन्ध होता है। निर्ज्जरा आत्म प्रदेश पर कर्मों के दलक लगे हुए हैं उनको तप-संयम दया दान पूजनादि सत्कर्मों से हटा देना उसको निर्जरा कहते हैं जब सब कर्म हट जाता है तब उस जीव की मोक्ष हो जाती है इन नौ तत्त्वों का शास्त्रों में बहुत विस्तार है ।
हे नरेश ! तात्त्विक पदार्थों को जानने के लिए सात नय और चार निक्षेत्र भी बतलाये हैं जैसे( १ ) नैगम नय-वस्तु के एक अंश को वस्तु मानना ।
२) संग्रह नय-वस्तु की सत्ता को वस्तु मानना ।
( ३ ) व्यवहार नय- - वर्तती वस्तु को वस्तु मानना ।
( ४ ) ऋजुसूत्र नय-वस्तु के परिणाम रूप को वस्तु मानना ।
( ५ ) शब्द नय - वस्तु के असली गुण को वस्तु मानना है ।
( ६ ) संभीरूदनय-वस्तु का एक अंश न्यून होने पर भी वस्तु को वस्तु मानना है ।
(७) एवंभूतनय - सम्पूर्ण वस्तु को वस्तु मानना है ।
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