Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
तो हे प्रभो ! आपके और आपके वंशजों के मैं अवश्य श्राधीन हो जाऊंगी। ऐसा कहती हुई देवी को आचार्यवर ने उत्तर दिया कि हे देवि ! आप अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहें। मैं आपको अभीष्ट 'कढड़ा 'मड़ड़ा' दिलादूंगा आप उनमें ही रती करना। गुरु के उक्त कथन पर देवी संतोष के साथ अन्तर्ध्यान हो गई और प्रातःकाल गुरुजी के पास सब श्रद्धालु श्रावक एकत्रित हुए उसको कहा कि हे श्रावकों ! तुम सब सुहाली श्रादि पक्कान्न तथा प्रत्येक घर से चंदन, अगर, कस्तूरी श्रादि भव्य भोग एकत्रित करो और इस प्रकार सब सामग्री सजा कर जल्दी ही पौषधागार ( पोशाला ) में एकत्र मिलो बाद संघ को साथ लेकर चामु ंडा देवी के मंदिर चलेंगे। यह सुन कर श्रावक गण सब सामग्री एकत्रित कर पौशाला एकत्रित हुये और सूरिजी उन्हें साथ ले चामुंडा के मन्दिर में गये । वहां पहुँच कर श्रावकों ने देवी का पूजन किया और सूरिजी ने कहा कि हे देवी! तुम अपना अभीष्ट ले लो। ऐसा कह कर दोनों तरफ के पक्कान्न पूर्ण सुण्डकों (टोपले ) को दोनों हाथों से चूर्ण कर पुनः बोले कि हे देवी अपना अभीष्ट प्रहण करो । यह सुन देवी प्रत्यक्ष रूप हो सूरिजी के सामने खड़ी रही और बोली कि हे प्रभो ! मेरी अभीष्ट वस्तु 'कडड़ा मडड़ा' है । गुरु बोले हे देवी ! यह वस्तु तुझे लेना और मुझे देना योग्य नहीं क्योंकि मांसाहारी तो केवल राक्षस ही होते हैं। देवता तो अमृत पान करने वाले होते हैं। हे देवी! तू देवताओं के आचरण को छोड़कर राक्षसों के आचरण को करती हुई क्यों नहीं जाती है ? हे देवी! तेरे भक्त लोग तेरी भेंट में लाये हुये पशुओं को तेरे सामने मारकर तुमको इस घोर पाप में शामिल कर उस मांस को वे स्वयं खाते हैं, तू तो कुछ नहीं खाती अतः तू व्यर्थ हिंसात्मक कार्य को अंगीकार करती हुई क्या पाप से नहीं डरती है ? यह तो निर्विवाद है कि चाहे देवता हो चाहे मनुष्य हो पाप कर्म करने वाले को भावान्तर में नरक अवश्य मिलता है । इस जीव हिंसा के समान भयंकर और कोई पाप नहीं है । यह बात सब दर्शनों ( धर्म शास्त्रो ) में प्रसिद्ध है । अतः तू जगत की माता है तो तेरा कर्तव्य है कि
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निज प्रतिज्ञा वचने, स्थिरी भाव्यों त्वया सदा । कड़ड़ाँ मड़ड़ा देवि दास्ये तत्र रतिं कृथाः ॥ प्रतिज्ञाय गुरूक्तंतद्, देवी सद्यस्तिरोदधे । प्रातः सर्वानपि श्राद्धान्, गुरवः पर्यमीलयन् ॥ मिलितानाँ श्रावकाणाँ, पुरतः सूरयोऽवदन् । पक्वान्नानि विधाप्यन्ताँ, सुहाली प्रभृतीनि भोः । प्रतिगेहं घनसाराऽगुरु कस्तूरिकादिकः । भोगः संमील्यताँ भव्यो गृह्यताँ कुसुमानि च ॥ कृत्वैवं पौषधागारे, शीघ्र मांगम्यताँ यथा । चामुंडाऽऽयतनं यामः संघेन सहिता वयम् ॥ पूजोपस्कर मादाय श्रावकाः पौषधोकसि । अभ्ययुः सूरयः सार्धं, तैर्देवी सदेन ययुः ॥ अयू पूजन सुरीं श्राद्ध, सूरयो द्वार संस्थिताः । अवदंश्च निजाभीष्टं, लाहि देवि ! ददाम्यहम् || इत्युक्तोभय पार्श्वस्थे, पक्वान्नभृत सुण्डके । पाणिभ्याँ चूर्णयित्वोचुः, स्वाभीष्टं देवि गृह्यताम् ॥ अथ प्रत्यक्ष रूपेण, सूरीणाँ पुरतः स्थिता । प्राह प्रभो मद भीष्ट, कड़ड़ा मड़ड़ा ऽपरा ॥ गुरु रूचे न सा युक्ता, लातुं दातुं च ते मम । पालदा राक्षसा एव, देवा देवि ! सुधा ऽशनाः ॥ पूर्व दर्शन विख्यातं स्वनामार्थं विदन्त्यपि । पलादानाँ समाचारं चरन्ती किं न लज्जसे ॥ लोक चोपायन पशून, विनिहत्य पुरस्तव । तानत्ति नीत्वा स्वगृहे, त्वमश्नासि न किंचन । स्वीकुर्वाण मुधा हिंसा, पातकान्न विषभेकिम् । देवानाँ मानवानाँच, नरकः पाप क्रर्मणा ॥
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