Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४७० वर्ष
कहाँ तो हम अधम कि धन को ही जीवन का ध्येय समझ कर रात दिन इसकी ही प्राप्ति के लोभ में अपनी जिन्दगी को पशुओं से भी बदतर बिताते हुए मारे मारे फिरते हैं; जिसके कारण कि हम फटकारे जाते हैं और कहाँ आप से भाग्यशाली नर कि इस धन को तृण समान तथा इन रूपवती स्त्रियों को नर्क प्रद समझ कर छोड़ने का साहस कर रहे हो । वास्तव में हम अति पामर हैं हम अंधेरे कुए में हैं। हम अपने लिये अपने हाथ से खड्डा खोद रहे हैं। आप अहोभागी हैं। सब कुछ करने में आप पूरे समर्थ हैं, मैं आज आप से एक बात की याचना करता हूँ । आप हम पर अनुग्रह कर वह शीघ्र दीजिएगा । मैं आपको उसके बदले दो चीजें दूंगा । श्रवसर्पिणी निद्रा और ताला तोड़ने की विद्या तो आप लीजिये और स्तम्भन विद्या दीजिये । जम्बुकु वर ने समझाया कि जिस चीज को तुम प्राप्त करने की इच्छा करते हो वास्तव में वह निःसार है । तुम्हारे भागीरथ प्रयत्न का फल कुछ भी नहीं होगा । यदि सचमुच तुम्हारी इच्छा हो कि हम ऐसी विद्या सीखें कि जिस से सदा सर्वदा सुख हो तो चलो सौधर्माचार्य के पास और दीक्षा लेकर अपने जीवन का कल्याण करो। इस प्रकार से जम्बुकु वर ने ५०० चोरों को भी प्रतिबोध देकर इस बात पर तत्पर कर दिया कि वे भी दीक्षा लेना चाहने लगे ।
इस प्रकार कुवर अपने माता पिता और ८ स्त्रियों के ८ माता ८ पिता आदि को भी प्रतिबोध दे . कर सब मिला कर ५२७ स्त्री पुरुषों के साथ बड़े समारोह के साथ सौधर्माचार्य से दीक्षा ग्रहण की। जम्बु मुनि अपने अध्ययन में दक्ष होने के लिये आचार्यश्री ही की सेवा में रहे । चौदहपूर्व और सकल शास्त्रों
पारंगत हो बीस वर्ष पर्यन्त छदमस्थ अवस्था में दीक्षा पाली । वीरात् सं० २० वर्ष में आचार्य सौधर्मस्वामी ने अपने पद पर सुयोग्य जम्बुमुति को आचार्य पद दे मुक्ति का मार्ग ग्रहण किया। इनके पीछे बालब्रह्मचारी जम्बु आचार्य को कैवल्यज्ञान और कैवल्यदर्शन उत्पन्न हुआ । आपने ४४ वर्ष पर्यन्त भारत भूमि पर विहार "कर जैनधर्म का विजयी झंडा यत्र तत्र फहराया । अपने अमृतमय उपदेश से कई भव्यात्माओं का उद्धार किया । इति जम्बू सम्बन्ध ।
आचार्य स्वयंप्रभरि ने मरुधर देश में विहार कर वाममार्गियों के साम्राज्य में इस प्रकार जैनधर्म की नींव डाल कर उसका प्रचार किया यह कोई साधारण बात नहीं थी फिर भी उन्होंने अनेक कठिनाइयों को सहन कर अपने कार्य की सिद्धि कर ही ली । आज जो मरुधर प्रान्त में जैनधर्म का अस्तित्व विद्यमान है वह उन सूरीश्वर जी महाराज की कृपा का ही मधुर फल है । आचार्यश्री ५२ वर्ष तक धर्म का प्रचार करके वीर संवत् ५२ की चैत्रशुक्ला प्रतिपदा के शुभदिन तीर्थाधिराज श्रीशत्रु जय की शीतल छाया में चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में मुनि रत्नचूड़ को अपना पट्ट अधिकार देकर अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधाये ।
प्रश्न- कई लोग कहते हैं कि पोरवाल सबसे पहिले हरिभद्रसूरि ने ही बनाये थे तो फिर आप क्यों फरमाते हो कि प्राग्वट (पोरवाल) वंश की स्थापना स्वयंप्रभसूरि ने की थी ?
उत्तर - - हरिभद्रसूरि ने पोरवाल बनाये हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि ये तो जैनाचायों का मुख्य काम ही था । जैसे ओसवाल जाति आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बनाई थी । बाद भी पिछले श्राचार्य जैनेतरों को प्रतिबोध करके सवालों में मिलाते गये; इसी प्रकार हरिभद्रसूरि ने भी पोरवाल बनाके पूर्व पोरवालों के शामिल कर दिये हों; परन्तु पोरवाल वंश के आदि संस्थापक तो स्वयंप्रभसूरि ही थे ।
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