Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य रत्रप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४१८ वर्ष
. एक समय का जिक्र है कि रथनुपुर के उद्यान में एक चारणमुनि का शुभागमन हुआ । राजा प्रजा सब लोग मुनि को वन्दन करने के लिये गये और मुनिश्री ने उन आये हुए श्रावकों को संसार असार एवं भव तारण रूप देशना दी । आत्म-कल्याण के साधन कार्य में तीर्थ यात्रा भी एक है, इस पर मुनिराज ने खास अपना अनुभव किया हुआ अष्टम नन्दीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों का इस कदर वर्णन किया कि उपस्थित लोगों का दिल नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों की यात्रा करने को हो आया। व्याख्यान खत्म होने के बाद मुनिराज ने तो आकाशगामिनी लब्धि द्वारा विहार कर दिया। राजा प्रजा के दिल में यात्रा की लगन लगी थी वह वृद्धि ही पाती ही गई । अतः राजा प्रजा ने निश्चय कर अपने आकाशगामी विमानों को तैयार कर यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया । पट्टावलीकार ने विमानों की संख्या का उल्लेख नहीं किया है। पर नाभिनन्दन जिनोद्धार ग्रन्थकर्ता ने यात्रार्थ जाने वाले विद्याधरों के विमानों की संख्या एक लक्षर की बतलाई है और यह सम्भव भी हो सकता है। कारण, आगे चल कर इन विद्याधरों में से ५०० ने दीक्षा ली थी।
___ जब वे विमान में बैठे हुए विद्याधर आकाश मार्ग से गमन कर रहे थे तो आगे चल कर उनके विमान आकाश में रुक गये । इसका कारण जानने को नीचे देखा तो अनेक मुनियों के साथ एक महात्मा कई देव देवांगनाओं को धर्म देशना दे रहे थे । विद्याधरों के नायक ने सोचा कि हम लोग स्थावर तीर्थ की यात्रार्थ जा रहे हैं और जंगम तीर्थ की आशातना कर डाली यह अच्छा नहीं किया । अतः वे विद्याधर विमान से उतर कर सूरिजी के चरण कमलों में आये और अपने अपराध की माफी माँगते हुये कहा कि हे प्रभो ! हम लोगों ने अज्ञान के वश आपकी आशातना की है अतः आप क्षमा प्रदान करें।
१ अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनां ददतां उपरि रत्नचूड़ विद्याधरो नन्दीश्वरे गच्छन् तत्र विमान स्तंभितः । तेनचिंतितः मदीयो विमानः केन स्तंभितः । यावत् पश्यति तावदधो गुरु देशनां ददतं पश्यति । स चिंतय ते मयाऽविनयः कृतः यतः जंगम तीर्थस्य उल्लंघनं कृतं! स आगतः गुरु वन्दति धर्म श्रुत्वा प्रतियोद्धः स गुरु विज्ञापयति । मम परंपरागत श्री पार्श्व जिनस्य प्रतिमास्ति तस्य वन्दने मम नियमोस्ति । सा रावण लंकेश्वरस्य चैत्यालये अभवत् । यावत् रामेण लंका विध्वंसिता तावद् मदीय पूर्वजेन चन्द्रचूड़ नरनाथेन वैताड्य आनीता सा प्रतिमा मम पास्ति तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि गुरुणा लाभं ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्ता। .
'उपकेश गच्छ पट्टावली' पृष्ठ १८४ : . २ तदा च वैताड्य नगे, मणिरत्न इति प्रभुः विद्याधराणामैश्वर्य, पालयन्नस्ति विश्रुतः ॥ स च अन्यदाऽष्टम द्वीपे, दक्षिणस्यां दिशि स्थिते नित्योद्यताञ्जन गिरौ, शाश्वत्तान्जिननायकान् ॥ विवन्दि पुर्विमानानां, लक्षेण सहितोऽम्बरे गच्छन् ददर्शतान, सूरीन् मुनि पंचशती युतान ॥ नोल्लंघ्यं जंगम तीर्थं, मत्वाऽतोऽवत तार च प्रणम्य भक्तया न्यषदद्, देशनाकर्णनेच्छया । परयोऽपिहि संसारासारता परिभाविकाम् तादृशी देशना चक्रुः स यथाऽभूद् विरक्त धी ॥ निवेश्यथ सुतं राज्येऽनुज्ञाप्य च निज जनम्, विद्याधर पञ्च शती युतो व्रतमुपाददे ॥
"नाभिनन्दन जिनोदारपृष्ट ३१"
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