Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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एवं सेवा भक्ति भी करते थे । अतः यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि भारत सभ्यता का भण्डार एवं केन्द्र था और अन्य देश बालों मे सभ्यता का पाठ भारत से हो सीखा था । भारत अन्य देशों का गुरू कहलाने के कारण ही जगद्गुरू
माना जाता था ।
इतिहास से यह भी पता मिल जाता है कि भारतीय लोग अन्य देशों में जाकर अपने उपनिवेशों की स्थापना भी करते थे और वहां की जनता पर भारतीय सभ्यता का गहरा प्रभाव पड़ता था। अतः उपरोक्त प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि हमारे पूर्वज इतिहास के बड़े ही प्रेमी थे । इतिहास लिख कर उसका संरक्षण चिरस्थायी बनाने की पूरी २ कोशिश भी करते थे। हां, भारत में लगातार कई वर्षों तक अकाल पड़ने से एवं विदेशी लोगों के समय-समय पर विविध माक्रमणों के फल स्वरूप कई इतिहासों के भण्डार, पठनालय एवं संग्रहालय और साधन नष्ट भ्रष्ट हो जाने से इस समय जितना चाहिये इतना सिलसिलेवार नहीं मिलता है, लेकिन यह बात दूसरी है । हम यह तो कक्षपि नहीं कह सते कि उन लोगों ने अपने समय में इतिहास लिखा ही नहीं। आगे चल कर इस विषय का मैं विशेष खुलासा करूंगा ।
३ – वर्तमान काल में प्राचीन इतिहास की दुर्लभता:
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वर्तमान में भूत कालीन एवं प्राचीन इतिहास के न मिलने का प्रश्न सब जनता द्वारा हो रहा है। इसका उत्तर किलने के पूर्व मुझे यह कह देना चाहिये कि - एक तो भारत में जन-सहारक ऐसे भीषण दुष्काल पड़े थे और वह भी एक दो वर्ष तक नहीं अपितु कोई-कोई दुष्काळ तो निरन्तर १२-१२ वर्ष तक पड़ते ही रहे कि जिसकी भोषण यन्त्रणाओं (मार ) से अनेकों नगर एवं ग्राम स्मशान तुल्य बन गए थे। उस आपत्ति काल में जन-समूह अपने प्राण बचने एवं जन-धन की रक्षार्थं पत्र-तत्र मारे-मारे भटक रहे थे। फिर भला उस अवस्था में नया साहित्य निर्माण करना तो एक ओर रहा. पुरानों की रक्षा भी मुश्किल हो गई थी, इस कारण वे ज्ञान भण्डार जहाँ थे वहीं रखे रखाये नष्ट हो गये । दूसरा कारण विदेशी म्लेच्छों का भारत पर लगातार और पके बाद दीगर आक्रमणों का होना । फलस्वरूप प्रामों नगरों को जनसंहार एवं अग्नि-दाह द्वारा शून्य भरण्यवत बना देना । अर्थात् प्रमुख साहित्यक भण्डार, ऐतिहासिक साधन, प्राचीन नगर एवं देवस्थान भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिए गए जिसमें हमारा अमूल्य ऐतिहासिक बहुत सा साहित्य भस्मीभूत एवं नष्टभ्रष्ट हो गया । फिर भी जो कुछ साहित्य पुराना बच गया था एवं नया निर्माण किया गया था वह धर्मान्ध मुसलमानों के
अत्याचारों ने तो बहुत ही जुल्म किया उसने
हमलों से बर्बाद हो गया । जिसमें प्रसिद्ध धर्म-द्वषी अलाउद्दीन खिलजी के ऐतिहासिक उत्तम साधन, हजारों मन्दिर लाखों मूर्तियों को दुष्टता पूर्वक ध्वंस किया और कई ज्ञान भण्डारों, साहित्य, संग्रहालयों को ज्यों के त्यों जला कर भस्मभूत कर दिया। कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने ६ मास तक तो नित्य प्रति भारतीय साहित्य भट्टी में जलवा कर स्नान के लिए गरम पानी किया गया और तक भारतीय साहित्य अमूल्य रत से कई वर्ष हिन्दुओं की होली जलवाई थी ।
इससे पाठक अनुमान लगा लें कि उस समय से पूर्व भारत में कितना विशाल साहित्य का खजाना भरपूर था, जिसे धर्म-द्वेशियों ने किस दुष्टता के साथ नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। इस बात की प्रमाणिकता के लिए यहां पर हम एक ऐसा ही उदाहरण पाठकों की सेवा में उपस्थित करते हैं: - "विक्रम की छठी शताब्दी के प्रथम चरण में आर्य्यं देवद्धि गणिक्षमाश्रणजी ने बल्लमी नगरी में एक विल्ट संघ सभा को और जैनागमों को पुस्तकों पर लिखने का एक बृहद् आयोजन किया। जिसमें सैकड़ों मुनियों ने अपने हाथों से तथा कई वेतनदार लेखकों ने आगमों को तथा भनेक ग्रंथों को पुस्तकों पर लिखवाया । पश्चात् यह कार्य्यं इतमा व्यापक हो गया कि जिसने जो कोई ग्रंथ निर्माण किया तो वा तत्काल ही पुस्तकों पर लिख लिया जाता। इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं कि जैन श्रमणों ने सैकड़ों ही नहीं अपितु हजार ग्रन्थ लिखे होंगे पर वर्तमान काल में बहुत शेध करने पर भी उस समय अथवा उसके आसपास के सौ दो सौ वर्ष का लिखा हुआ एक पना भी नहीं मिला है। इसका यही अर्थ हो सकता है कि म्लेच्छ लोगों ने वे ज्ञान भण्डा धर्मान्धता के कारण दुष्टता पूर्वक जला दिए एवं नष्ट-भ्रष्ट कर डाले थे, अन्यथा इतनी विशाल संख्या में लिखे गये पुस्त Jain Educatioट हो तो ५क पन्ने सो अवश्य मिलते | जैसा हाल जैन शास्त्रों का है, ठीक वैसा ही दूसरे धर्मावलम्बियों के शास्त्रों
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