Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वंशावलियाँ लिखने की शुरुआत कब से या किस कारण हुई ? इस के लिए पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वाले ने अपनी अंचल गच्छ वृहद् पट्टावली मैं लिखा है कि भीनमाल वा राजा भाण ने जैन धर्म स्वीकार करने के पश्चात् श्री शजयादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला । उस समय उसके संघपति को वासक्षेप देने के विषय में आपस में खेंचा तानी होगई। उस समय तमोम गच्छों के आचार्य एकत्रित होकर एक मर्यादा कायम करदी कि जिस गच्छ के आचार्यों ने जिन लोगों को सबसे पहले प्रतिबोध देकर अजैनों से जैन बनाया, उसी गच्छ के आचार्य उनको तीर्थ संघादि ऐसे प्रसंग पर वासक्षेप दे सकेगे। इससे इतिहास की अव्यवस्था न होगी और गृहस्थ लोग भी कृतघ्नता के कलंक से बच जायगे इत्यादि । इस मर्यादा को उन्होंने एक लिखत पा लिख कर तथा सव आचार्यों के हस्ताक्षर करवा कर पक्की एवं चिरस्थायी बना दी। यदि उस मर्यादा के अनुसार चलते तो गृहस्थों का इतिहास ठीक सिलसिलेवार सुव्यवस्थित रह जाता किन्तु कलिकाल ने उस मर्यादा को चिरकाल तक चलने नहीं दिया। दुषम काल के कारण कई लोगों ने जिनशासन की चलती हुई माया एवं क्रिया समाचारी में न्यूनाधिक प्ररुपणा करके नये नये मत चला कर संघ में फूट-कलह पैदा कर दिया था। इतनी तो उनमें योग्यता न थी कि वे स्पयं कुछ कर सकें, वे तो चलते हुए शासन में छेद-भेद डाल कर कुछ भद्रिक लोगों को अपनी नयी दुकानदारी के अनुयायो बनाने का दुस्साहस र डाला। अतः उन जिन-शासन-रक्षक शासन शुभचिन्तक घुरन्धर आचार्यों की बान्धि हुई मर्यादा का छेद-भेद कर डाला । इनकी शुरुमात करीब विक्रम को ग्यारहवीं शताब्दि से होने लग थी जो वर्तमान समय तक भी मौजूद है।
___पूर्वाचार्यों की स्थापन की मर्यादा में गड़बड़ होने का एक यह भी कारण हुआ था कि कई गच्छों के भाचार्यों ने अपने २ पृथक २ गच्छ के मन्दिरों की सार सँभाल के लिए उन मन्दिरों के गोष्ठिक सभ सदों) बना दिये । जिसमें स्वगच्छ-परगच्छ का भेद नहीं रखा गया था। किन्तु जिस मन्दिर के आस पास घर थे और उनमें मन्दिर की सार संभाल करने की योग्यता थी उनको ही सम्मिलित किया गया इस कार्य में भले ही शुरू करने वालों की इच्छा अच्छी होगी और वे गोष्टिक बनने वाले भी अपने अपने प्रति बोधक आचार्य को जानते ही थे। अपने अपने गच्छ को एवं समावारी को भी जानते थे किन्तु केवल एक पास में आये हुए मन्दिर की सार-सम्हाल करने की गर्ज से ही वे सभासद बन गये थे। पर बाद ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता गया त्यों को उसका रूप भी बदलने लगा। सबसे पहले तो यह कार्य वाही की गई कि जिस मन्दिर के गोष्ठिक के घर में लग्न पुत्र जन्मादि शुभ कार्य हो, वह अन्य मन्दिरों में एक एक रुपया दे तो वह जिस मन्दिर का गोष्ठिक हो, उस मन्दिर में दो रुपया देवे । इससे यह हआ कि एक बाप के दो पुत्र थे, एक पत्र एक गच्छ के अर्थात् महावीर के मन्दिर के पास रहता था, वह मवीर के मन्दिर का गोष्ठिक (सभासद) बन गया। तब दूसरा भाई दूसरे गच्छ के अर्थात् पार्श्वनाथ के मन्दिर के पास रहता था वह पाश्र्व मन्दिर का गोष्टिक बन गया। इस तरह दोनों भाई दो गच्छ के हो गये । आगे चल कर जिस गच्छ के मन्दिर का गोष्ठिक बना था, उसको सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण तथा व्याख्यान सुनने के लिए भी वही जाना पड़ता था और उनकी ही क्रिया समाचारी करनी पड़ती थी। अर्थात एक ही पिता के दो पुत्रों की दो गच्छ की क्रिया हो गई । बाद कई पुश्त गुज़र गई तब उन गच्छ के आचार्यों ने अपने गोष्ठिकों पर पक्की छाप लगा दी कि आपके पूर्वजों को हमारे पूर्वाचार्यों ने मांस मदिर छुड़ा कर श्रावक बनाय था। अतएव आप हमारे गच्छ के हैं । इतना ही क्यों, उन्होंने तो कई कथाएं भी रच डाली और उनका प्राचीन इतिहास मिटा कर नूतन वरूपनाएँ कर अली, जिससे कि पूर्वाचार्यों की बांधी हुई मर्यादा में गड़बड़ होगई । नूतन मत धारियों को तो ज्यो त्यों कर अपना बाड़ा बढ़ाना ही था, अतः भद्रिक लोगों से उन्होंने वाफ़ो लाभ उठाया एवं अपना स्वार्थ साधन किया।
कई एक गच्छ का श्रावक नया मन्दिर बनाता या संघ निकालना चाहता तो उस समय उसके प्रतिबोधक आचार्य की परम्परा के आचार्य नज़दीक न होने से तथा बुलाने पर भी न आने से दूसरे गच्छ के भाचार्य से बासक्षेप लिया कि उन पर भी अपनी छाप लगा दी। इसी प्रकार किसी प्रान्त में दूसरों का भ्रमण न होकर जिसका अधिक भ्रमण एवं अधिक परिचय के कारण अन्य गच्छीय श्रावकों को अपनी क्रिया समाचारी करवा कर अपनी छाप ठोक दी। उनकी संतान ने बचपन से हो उनको ही देखा अतः उन पर विश्वास, कर लिया। इस प्रकार नये नये मत पंथ निकाल कर गृहस्थ कोगों
केतिहास को इस प्रकार भ्रम में डाल दिया कि अब उनके अन्दर से शुद्ध सत्य वस्तु शोध कर निकालनी मुविका होगई। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org