Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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३-इस विषय में तीसरा नम्बर है पट्टावलियों का पट्टावलियों में अधिकतर इतिहास जैनाचार्यों या उनके शिष्य शिष्य श्चमगों का ही मिला है। शायद कहीं २ उन श्रमणों के साथ सम्बन्ध रखने वाले गृहस्थों का इतिहास भी मिलता |किन्तु वह बहुत थोड़े परिमाण में । फिर भी इतिहास के लिए पट्टावलियाँ बहुत उपयोगी साधन है। किन्तु पट्टाव केषों विक्रम की तेरहवी चौदहवीं शताब्दि में लिखी गई हैं, और इनमें सैकड़ों वर्ष पूर्व की घटनाएं भाचार्यों के कण्ठस्थ कान परमरा से चला आया है; इसका वर्णन होने से कई लोगों का उन पर विश्वास कम है।हाँ पट्टावलियों में एक हेमवन्त
विरावली विक्रम की तीसरी शताब्दि में आचार्य हेमवन्त सूरि की बनाई कही जाती है। किन्तु उसकी प्राचीनता के लिय में सबका एक मत नहीं है। कई लोग इस स्थविरावली के विषय में संदेह करते हैं और कई विद्वान उसको ऐतिः हासिक दृष्टि से परमोपयोगी भी समझते हैं। कुछ भी हो, किन्तु हेमवन्त स्थवरावली में लिखी हुई घटनाएँ उड़ीसा प्रान्त की हस्तीगुफा से मिला हुआ महामेघवाइन चक्रवर्ति सम्राट खारबेल के शिलालेख से मिलती हुई है। शेष पट्टाव लयां विक्रम को तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि की होने पर भी उन पर अविश्वास नहीं किया जाता है। कारण कि वे पट्टावलियां हमारे पंच महाब्रम धारी सत्यवर्ति एवं संयमी आचार्य द्वारा लिखी गई हैं। वे भव भीरु आचार्य जान बूझ कर एक अक्षर भी न्यूनाधिक नहीं लिखते ऐसी जैन-समाज की निश्चित धारणा है। हमें एक नाम के कई आचार्य एवं राजा हो जाने से समयादि के विषय में किसी कारणवश त्रुटि भा भी गई हो तो अन्य साधनों से उसका संशोधन करना हमारा परम कर्तव्य है। किन्तु ऐसी साधारण त्रुटियों के लिए उन प्राचीन एवं परमोपयोगी साहित्य का अनादर हम कदापि नहिं कर सकते हैं। इन पट्टावलियों के अतिरिक्त कई आचार्यों के लिखे ग्रन्थ भी इतिहास के उपयोगी साधन हैं । जैसे:-आचार्य हेमचन्द्रसूरि का विषाष्टि-सिलागा पुरुष चरित्र और परिशिष्ट पर्व, भाचार्य प्रभाचन्द्र सूरि रचित प्रभाविक चरित्र, आचार्य मेरुतुंग सूरि रचित प्रबन्ध चिन्तामणि, आचार्य कक्कसूरि रचित नाभिनन्दन जिनोद्धार और उपकेश गच्छ चरित्र इत्यादि कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं। किन्तु हैं वे तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि के लिखे हुए।
- इतिहास के साधन के विषय में चौथा नम्बर वंशावलियों का है। वंशावलियों जैन धर्म एवं जैन गृहस्थों के इतिहास के लिये बहुत ही उपयोगी साधन है । कारण कि जैन गृहस्थों का विस्तृत इतिहास जितना जनवंशावलियों में मिलता है उतना दूसरे स्थानों में नहीं मिलता है । वंशावलियों की शुरुआत तो विक्रम की आठवीं शताब्दि से होगई थी, किन्तु इतने प्राचीन समय की वंशावलियों आज कही भी दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। जैसा कि अर्वाचीन पहावलियों में प्राचीनसमय का इतिहास लिखा मिलता है. ठीक इसी प्रकार अर्वाचीन वंशवलियों में भी प्राचीन समय का इतिहास लिखा गया है। उनकों हम सर्वथा कल्पित नहीं कह सकते हैं। कारण कि. उन पट्टावलियों को लिखने वालों ने भी किसी न किसी भाधार पर ही लिखा होगा । अन्यथा बिना आधार तो वे लिख ही क्या सकते थे ? १-प्राचीम पट्टावलियाँ एवं बंशावलियाँ न मिलने के विषय में हम ऊपर लिख आये हैं कि प्राचिन समय तो क्या किन्तु देवर्द्धिगण क्षमाश्रमजी के समय में लिखे गये सैकड़ों हजारों ग्रन्थों से भाज एक भी पत्र नहीं मिलता है । हाँ, उस समय की लिखी हुई प्रतियों का उतारा किये हुए अर्वाचीन ग्रन्थ मिल सकते हैं।
इसी प्रकार पट्टावलियों एवं वंशावलियों को भी हम मान ले तो उनके अंदर संदेश को स्थान नहीं या कम रह जाता है । यदि हम उन पट्टावलीयों एवं वंशावलियों पर विश्वास ही न करें तो हमारे पास ऐसा कोई भी साधन नही कि जैससे हम हमारे पूर्वजों का इतिहास लिखने में थोड़ी भी सफलता हासिल कर सकें । इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं ही सकता है। कि हम अन्ध विश्वास एवं आँखें बन्द कर के ही लिखे हुए सब साधन को बिना किसी कसौटी पर कसे ही स्वीकार कर लेते हैं । जहाँ कहीं भी हमें संदेह हो उस बात को अन्य साधनों द्वारा संशं धित कर लेना होगा। कई लोग ऐसे मी पक्षपाती हैं कि जिम में अपनी मान्यता कि सिद्धि होती हो वह तो प्राचिन एवं अर्वारिन सब प्रमाणिक मानते हैं। कहां थोड़ी सी भी बात अपनी मान्यता के विरद्ध आई कि उसे कल्पित ठहरा देते हैं यह बात इन्साफ की नहीं पर एक अन्याय की बात है, मुख्यतया इतिहास क्षेत्र में पक्षपात रखना सर्वथा अनुचित है।
.!-इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १४७ पर देखें लिखत की नलन । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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