Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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हालत को परमात्मा सीमंधर स्वामी के पास कांगजे, हुण्डी पैठ परपैठ और मेझरनामा लिख कर भेजने की इच्छा हुई भतः मेझरनामा लिख दिया। इसका मुख्य कारण तो यही था कि मैं स्थानकवासी समुदाय से आया हुआ था, क्रिया पर मेरी रुचि थी। इधर साधुओं का आचार-व्यवहार भी प्राय: शिथिल ही था।
खैर, उस मेझर नामे के लिखने से एक दो नहीं किन्तु अखिल संवेगी मुनि-मण्डल मेरे से खिलाफ हो उठो । स्थानकवासी तो पहिले से ही मुझ से खिलाफ थे, अव चारों ओर से ही विरोध के बादल उमड़ उठे । इससे नया ज्ञानध्यान करना तो दूर रहा किन्तु पहिले जो किया था उसकी भी सार सम्हाल होनी मुश्किल हो गई। मेरे पास अब केवल एक आधार अवश्य था और वह था सस्य । यदि उस समय मुझे इतना ज्ञान होता कि आज जिस दशा पर मैं मेझरनामा लिख रहा हूँ, भविष्य में मेरी भी यह दशा हो जायगी तो मुझे अवश्य विचार करना पड़ता। किन्तु जो होने वाला होता है वह तो अवश्य ही होकर रहता है।
अभी तक इतिहास की ओर मेरी थोड़ी सी भी रुचि न थी। संसार में तो हम हमारे पूर्वजों के दो चार पीढ़ियों के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी न जानते थे। हमारे कुलगुरु कभी नाम लिखने को आया करते थे तब वे कहते थे कि भापका गच्छ कंवलागग्छ है। जब दीक्षा एवं संवेग दीक्षाली, तब हमें इतना मालूम हुआ कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी ने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुर के राजा-प्रजा एवं सवालक्ष क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। जिनके आगे चल कर कई गोत्र हुए, उनमें १८ गौत्र मुख्य थे; जिनमें राव उत्पलदेव की संतान श्रेष्ठि गौत्र कहलाई और वैद महता उस श्रेष्टि गौत्र की एक शाखा है । जब मैने फलौदी में लगातार तीन चातुर्मास किए तो वहाँ कँवल गच्छ के उपाश्रय में एक विशाल ज्ञान भण्डार था, उसे देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें उपकेशगच्छ, पट्टावलियाँ कुछ वंशावलियों की वहियां एवं कम्बे लम्बे ओलिये और कई फुटकर पन्ने देखने को मिले । उनके अन्दर से कुछ उतारने लायक पाने थे वे मैंने अपने हाथ से वहीं उतार लिये। इसके पूर्व राजकदेसर के यतिवर्य माणकसुन्दरजी तथा रायपुर के यतिवयं लाभसुन्दरजी ने भी उपकेशगच्छ सम्बन्धी कई प्राचीन ग्रन्थ कई चित्र और कई बादशाहों के दिए फरमान व सनदें आदि मुझे दिखाई थीं किन्तु उस समय इस और मेरा लक्ष्य न होने के कारण उनको इतना उपयोगी नहीं समझा था। तथापि उन्होंने मुझे स्वगच्छ का समझ कर देखने के लिए एवं रखने के लिए दे दिए थे। मेंने उन सबको भोशिया में एक पेटी भर रख दिये थे। जब फलौदी में इस विषय की ओर मेरी रुचि हुई तो ओसियां से पेटी मंगवाकर उनको भी देखने लगा किन्तु, फलौदी में मैं अकेला था तथा दोनों समय व्याख्यान भी बाँचना पड़ता था, अतः समय बहुत कम मिलता था; फिर भी जितना हो सका अभ्यास जरूर करता रहा।
जब मैंने नागौरा में चातुर्मास किया तो एक सज्जन ने मुझे एक पुस्तक जिसका नाम "महाजन वंश मुक्तावली" जो बीकानेर के यति रामलालजी ने वि० सं० १९६५ में मुद्रित करवाई थी, मुझे दो और मैंने ध्यान लगा कर पढ़ा; उससे मालूम हुआ कि य सजीने केवल गच्छ ममत्व के कारण ओसवाल जतियों के इतिहास का जबरदस्त खून कर डाला है। कारण कि उस पुस्तक में बाफना रोको पोकरणा चोरडिया संचेती आदि जातियों-आचार्य रत्नप्रभसूरिजी द्वारा प्रतिबोधित है। जिनका इतिहास कोई २४०० वर्ष जितना प्राचीन है, उनको अर्वाचीन आचार्य द्वारा प्रतिबोधित बतला कर ७०.. ८०० वर्ष जितनी अर्वाचीन बतला दी । यह एक बड़े से बड़ा अन्याय है। इनके अलावा संघी, भण्डारी मुनौयत-ढड्डादि
स्थानकवासियों से जितने योग्य साध संवेगी समदाय में आये समाज सबका सत्कार किया पर मैं तो शुरू से ही समाज में कांटा खोला की तरह खटकने लगा इसमें एक तो मैं किसी के पास नहीं रह कर स्वतंत्र ही रहा। दूसरा मैं एकला होने पर भी उपकेश गच्छ 'जो सब गच्छों में ज्येष्ट एवं प्राचीन है' का नाम धराया। यही कारण है कि मेरा सस्कार तो होना दूर रहा पर मुझे मेरे ही विचारों के लिये अनेक कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ी। योग्यास्मार्थी शिष्य मुझे मिला नहीं और अयोग्य को मैंने शिष्य बनाया नहीं। हाँ मुर्ति नहीं मानने वाले जैसे मुझे मिले वैसे ही उनकों ले लेना
ठोक समझा शायद वह योग्य नहीं निकले पर मूर्ति की निंदा करने वाले जितने कम हो उतने ही अच्छे । अतः मैं करीब Jan Ed"३५ वर्षों से मेरी प्रतिज्ञा पालता हुआ एक साधु के साथ विहार करता हूँ !ly
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