Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य केशीश्रामण के शासन में भ० महावीर और महात्मा बुद्ध का शासन एवं उसके शासन के अन्दर की प्रत्येक घटनाएँ आदि का इतिहास भी शामिल लिख दिया गया है। इसी प्रकार भ. पार्थ नाथ के ८४ पटधरों के शासन में भ. महावीर के पट्ट-परम्परा में जितने गच्छ निकले एवं उन गच्छों के जितने भी आचाय्यं हुए तथा उन आचार्यों के शासन में जितनी जितनी घटनाएं घटी और उन में मुझे जितना इतिहास मिला, मैंने यथास्थान लिख दिया है । वह भी केवल धार्मिक ही नहीं अपितु सामाजिक और राजनेतिक इतिहास भी विशेष रूप से लिख दिया गया है । जोकि आप इस ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका से देख सकेंगे।
___इस ग्रन्थ का नाम क्या रखा जाय । इस विषय में कई सज्जनों की सलाह ली- जैनधर्म का इतिहास रखा जाय: किन्तु इस नाम से कई पुस्तकें पहिले प्रकाशित हो चुकी हैं। और उसमें केवल एक जैन आचार्य, वह भी भ. महावीर की परमपरा के ही आचायों का ही शासनविशेष वर्णित है। उसमें भी जिस गच्छ वालों ने इतिहास लिखा है वे प्रायः अपने ही गच्छ परम्परा का इतिहास लिखा है अतः इस नाम से जनता एक साधारण इतिहास समझ सकती है खैर, भ० महावीर को परम्परा के विषय को तो वहुत सी पहावल्लियां वगैरा में लिखी गई हैं किन्तु म० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अभी तक किसी ने नहीं लिखा है। मेरे ख़याल से जैन धर्म के इतिहास में पार्श्वनाथ परम्परा का अधिक हिस्सा है। अतः मैंने मुख्यतया उन पार्श्वनाथ परम्परा का ही इतिहास लिखा है। इस कारण इस ग्रन्थ का नाम भी "भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास" रखना ही उपयुक्त समझा है। किन्तु पाठक ? यह न समझे कि इस ग्रन्थ में केवल पार्श्वनाथ की परम्परा का ही इतिहास है ? इस में पार्श्वनाथ या महावीर के शासन एवं परम्परा का तथा इन २८०० वर्षों में जैनधर्म सम्बन्धी घटी हुई घटनाओं में मुझे जितना इतिहास मिला है, मैंने सबका ही इसमें समावेश कर दिया है।
इस ग्रन्थ की सामग्री संकलन करने में मैंने कोई २० वर्षों से खूब ही परिश्रम किया है और कई प्रकार की कठिनाइयाँ भी उठाई हैं। तथा सैकड़ों ग्रन्थों का भी अवलोकन किया है। जो कोई सामग्री एवं प्रमाण मिला उठा नहीं छोड़ा है। जहां प्रमाण कहीं नहीं मिला वहां पहावलियों, वंशावलियों को भी काम में लिया है, कि जिन पर मेरा विश्वास हो गया था। मेरे ज्ञान से मैंने किसी गच्छ, समुदाय, मत. पन्थ एवं जाति-गोत्र के प्रति अन्याय नहीं किया है। अपक्षपात से ही इतिहास को लिखा है। यों तो आज पर्यन्त मैंने बहुत से ग्रन्थ लिखे हैं किन्तु यह ग्रन्थ मेरे जीवन का अन्तिम प्रन्थ है। इस समय मेरी आयु ६२ वर्ष की हो चुकी है, शरीर की कमजोरी एवं नेत्रों की रोशनी भी बहुत कम होती जारही है । अतः भविष्य में अब मुझे आशा नहीं कि कोई ऐसा दूसरा ग्रन्थ लिख सकूँ । हां, मेरे हृदय में यह भावना जरूर है कि यदि यह ग्रन्थ समाप्त हो गया तो मैंने जो पहले ग्रंथ लिखे हैं, उनके अंदर रही हुई अशुद्धियों का परिमार्जन कर तथा शीघ्रबोध के जो २५ भाग लिखे थे उनको ठीक विवेचन के साथ दूसरी भावृत्ति लिख कर मुद्रित करवा दूं । खैर, इस समय तो इस ग्रन्थ को ही पूर्ण करने का प्रयत्न करूंगा।
___ अन्त में मैं इतना कह देना आवश्यक समझता हूँ । कि प्रथम तो इतिहास का लिखना ही एक टेढ़ी खीर है, उसमें भी मेरे जैसा-अल्पज्ञ के लिए तो और भी विशेष है। दूसरे सबसे पहला तो यही सवाल रहता है कि जितनी सामग्री चाहिये उतनी मुझे उपलब्ध नहीं हुई है। इसलिए मैंने अधिक माश्रय पट्टावलियो एवं वंशावलियों का ही लिया है कि जिस पर वर्तमान में इक तर्फा देखने वालों का विश्वास बहुत कम है। तथपि मैंने अपने दीर्घकाल के अनुभव से और निश्वित धारणा से इन साधनों का ठीक संशोधन कर विश्वास किया है । अन्य विद्वानों से भी निवेदन करता हूँ कि जब तक मेरी लिखी घटनाओं के विरुद्ध कोई प्रमाण न मिले तब तक उनको ठीक-यथार्थ ही मानें।
___मनुष्य की दृष्टि दो प्रकार की होती है। खण्डन और २ मण्डन । खण्डन दृष्टि वाला कहता है कि अमुक बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है ? तब मण्डन दृष्ठि वाला कहता है कि इस बात के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं मिलता है; अतः इसको हम भसत्य नहीं कह सकते हैं। इन खण्डन मण्डन के विवाद में हमारे हजारों जैनवीरों का इति
- भगानधि अंटेरे में पडा है। किसी की भी यह हिम्मत नहीं पड़ती कि उनको (प्रकाशित करा) प्रकाश में लाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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