Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० ५५४ वर्ष]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
छोड़ कर साधु बन जाय, इसलिये उन्होंने अपने प्यारे पुत्र बुद्धकीर्ति के लिये ऐसा प्रबन्ध कर रक्खा कि न तो वह दीक्षा ही ले सके और न उनकी आज्ञा बिना कहीं दूर प्रदेश में ही जा सके।
मुनिवर्य ने कुछ दिन वहाँ ठहरकर बाद वहाँ से विहार कर दिया । पर बुद्धकीर्ति के अन्तःकरण में जो वैराग्य का बीज बो गये थे वह दिन दूना और रात्रि चौगुना फलता फूलता ही गया । एक समय बुद्धिकीर्ति संसार त्याग की भावना से अपने एक छीनिया नाम के नौकर को साथ ले अश्वारूढ़ हो अपने वास स्थान से चल धरा । श्रागे चल कर अश्व और नौकर को तो वापिस लौटा दिया और श्राप जाकर पेहीत मुनि के पास जैनदीक्षा ले ली जो उनका अन्तःकरण चाहता था। बहुत अर्से तक बुद्ध ने जैनश्रमणत्व का पालन किया और यथासाध्य तपस्या भी की पर उनको इच्छित वस्तु न मिली । अतः तपस्या से उसका दिल हट गया और साधुओं से अलग हो स्वयं अकेला भ्रमण करने लगा। तदनन्तर उसने 'बौद्ध' नामक नूतन धर्म चलाया जो आज भी विस्तृत संख्या में विद्यमान है।
बौद्धमतवाले यद्यपि स्पष्ट रूप से यह स्वीकार नहीं करते है कि बुद्ध ने सबसे पहले जैनश्रमणों के पास जैनधर्म की दीक्षा ली थी। पर प्रमाणों के अनुशीलन करने पर यह पता सहज ही में लग जाता है कि बुद्ध ने प्राथमिक दीक्षा जैनसाधुओं के पास ही ली थी। जिसके कतिपय प्रमाण यहां उद्धृत कर दिये जाते हैं। १-सिरिपासणाहतित्थे, सरऊतीरेपलास णयरत्थे । पहिआसवस्ससीहे, महालुद्धोबुद्धकीत्तिमुणी ॥
तिमिपूरणासणेया अहिंगप पवज्जा वऊ परम भट्ठरतंवरंधरिता पवाट्ठियतेणएयतं ॥ मंसस्सनत्थिजीवो, जहाफलेदहियदुद्धसकराए तम्हा तं मुणित्ता, भक्खंतो नत्थि पाविहो । मझंणव ज्जाणिज्जं,दव्वदवं जहाजलतहा एदंइतिलोएधोसिता, पवतियं संघ सावधं ॥ अन्नो करेदिकम्मं, अणेतं भुंज दीसिद्धंतं परि कप्पिउणे णूणं, वसि किच्चणि रय मुववणे ॥
दर्शन सार नामक ग्रन्थ ( दिगम्बर ) २. इसी प्रकार श्वेताम्बर समुदाय के श्रीआचारांगसूत्र की शिलांगाचार्य कृत टीका में भी बुद्ध को जैन साधु होना लिखा है।
३. बौद्धधर्म के 'महावग्ग' नामक प्रन्थ में बुद्ध के भ्रमण समय का उल्लेख किया है जिसमें लिखा है कि एक समय बुद्ध राजगृह गया और वहाँ 'सुप्प' सुपास वसति में ठहरे थे । इससे यही सिद्ध होता है कि बुद्ध प्रारम्भ समय में जैन थे और जैनों के सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के मन्दिर में ठहरे थे।
४. बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तरा के उल्लेख से भी यही सिद्ध होता है कि राजा शुद्धोदन जैनश्रमणोपासक थे अर्थात् पार्श्वनाथ सन्तानियों के उपासक थे। अतः बुद्ध ने सबसे पहिले जैनश्रमणों के पास दीक्षा ली हो तो यह असंभव भी नहीं है।
५. डॉ० स्टीवेन्सन साहब के मत से भी यही सिद्ध होता है कि राजा शुद्धोदन का घराना जैन धर्म का उपासक था।
६. इम्पीरियल गेज़ीटियर ऑफ इण्डिया व्हाल्यूम दो पृष्ठ ५४ पर लिखा है कि कोई कोई इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि गौतमबुद्ध को महावीर स्वामी से ही ज्ञान प्राप्त हुआ था । जो कुछ भी हो यह तो निर्विवाद स्वीकार ही है कि गौतम बुद्ध ने महावीर स्वामी के बाद शरीर त्याग किया, यह भी निर्विवाद सिद्ध ही है कि बौद्धधर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध के पहिले जैनियों के तेईस तीर्थङ्कर और हो चुके थे ।
mammarwar
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