Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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-माया भी है तो इतना ही कि भगवान् पार्श्वनाथ के छठे पट्टयर आवार्य रत्नप्रभसूर ने वीरात् .. वर्षे उपकेशपुर के गा-प्रजा एवं सवालक्ष क्षत्रियों को प्रतिबोध कर जैन धर्म की दीक्षा देकर महाजन वंश की स्थापना करने का ही उल्लेख गहमा दृष्टिगोचर होता है पर इतना उल्लेख करने से उन परम्परा के इतिहास की इति श्री नहीं हो जाती है। पवावं रत्नप्रभसूरि की परम्परा संतान आचार्यों ने उस महाजन संघ का पालन पोषण और वृद्धि यहां तक की थी कि मरु सेन्ध कच्छ, सौराष्ट्र, लाट कांकण, शूरसेन, पंचाल कुनाल भावंती, बुन्देल खण्ड और मेदपोटादि प्रान्त में धूम घूम कर महाजन वंश की वृद्धि कर करोंडों की संख्या तक पहुंचा दिया था। उस शुद्धि की मशीन का जन्म विक्रम पूर्व ४०० वर्ष हुआ था और वह विक्रम की चौदहवीं पन्द्रहवी शताब्दि तक द्रति एवं मन्दगति से चलती ही रही थी। मेरा तो यहां तक खयाल है को भ० पार्श्वमाथ की परम्परा का इतिहास एक ओर रख दिया जाय तो जैन धर्म का इतिहास अपूर्ण एवं ब्धूरा ही रह जाता है।
जैन धर्म का इतिहास लिखने वाले को भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिखना परमावश्यक है। कारण कि, महाजन वंश का इतिहास के माथ इस परम्परा का घनिष्ट सम्बन्ध है और महाजन वंश का जितना इतिहास इस गच्छ व सम्प्रदाय के पास मिलेगा, दूसरे स्थान खोजने पर भी नहीं मिलेगा । यदि Sant विद्वान् लेखक इस कार्य को हाथों में लेता तो वे जैन धर्म का इतिहास सर्वाङ्ग सुन्दर बना सकता पर साथ में यह भी है कि इतिहास का लिखना कोई साधारण काम नहीं है इस कार्य में जितने साधनों की आवश्यकता हैउतना ही पुरुषार्थ की जरूरत हैं इसको वे ही लोग जान सकते हैं कि जिन्होंने ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा है। जब हम देखते हैं कि साधारण जातियों का इतिहास जनता के सामने आ गया है तब जैन धर्म जैसा प्राचीन एवं विशाल धर्म का इतिहास इतने अन्धेरे में पड़ा यह एक बड़ी शरम की बात है मैंने इस विषय के कई सामयिक पत्रों में लेख भी दिया पर किसी के कानोंतक जू भी नहीं रेंगी इस हालत में मैं मेरी भावना को दबा नहीं सका तथापि मुझे पहले से ही यह कह देना चाहिये कि न तो मैं इस विषय का विद्वान ही हूँ न ऐसा सुलेखक ही और न इस प्रकार विशाल इतिहास लिखने जितनी सामग्री ही मेरे पास है फिर भी दूसरे किसी विद्वान ने इस ओर कदम न उठाता देख मैंने यह अनाधिकारी चेष्टा कर इस वृद्ध कार्य में हाथ डाला है । मुझे यह भावना क्यों और किस तरह से पैदा हुई इसका भी थोड़ा हाल पाठकों के सामने रख देना अप्रसंगिक न होगा।
मेरा जन्म ओसवाल जाति में हुभा और संसार में मेरा पेशा (जीविका) व्यापार करने का था मैंने जिस ग्राम में जन्म लिया था, उसमें २०० घर महाजनों के थे। किन्तु वहां पर हिन्दी पढ़ाई के लिए स्कूल न थी और न ही कोई सरकारी स्कूल थी। केवल एक जैन यतिजी का उपआसरा था, और वे ही सब ग्राम के लड़कों को पढ़ाया करते थे। उनका परिश्रम-शुल्क (महनताना ) एक पटी का एक टका था। करीब एक रुपये में एक विद्यार्थी अपनी काम चलाऊ पढ़ाई कर लेता था। इससे अधिक उस समय पढ़ाना लोग व्यर्थ ही समझते थे। कारण उन लोगों की धारण थी कि इतनी दाई से ही हमारे लड़के लाखों का व्यापार कर लेते हैं। उनकी लिखी हुई लाखों की हुण्डी वगैरह सिकर जाती है तो फिर अधिक पढ़ाई करवा कर समय और द्रव्य का व्यय क्यों किया जाय । यतिजी की पढ़ाई केवल धार्मिक ही नहीं थी किन्तु धार्मिक के साथ २ महाजनी भी पढ़ाया करते थे। उनकी पढ़ाई में एक खास विशेषता यह थी कि माता पिता एवं देवगुरु धर्म का विनय मक्ति पर अधिक जोर दिया जाता था। यतिजी का पढ़ाया हुआ प्रत्येक लड़का अपने २ कार्य में प्राय: होशियार ही होता था। उन विद्यार्थीयों में मैं भी एक था किन्तु केवल एक व्यापार के अतिरिक्त संसार में क्या हो रहा है, इसको हम नहीं जानते थे । हमारे जीवन का ध्येय एकमात्र पैसा पैदा करना हो समझा जाता था।
जब छब्बीस वर्ष की उमर में मैं घर छोड़ कर स्थानकवासी समुदाय में साधु बना, तो वहां भी बोल चाल गया तथा शास्त्र के पाठ रटरटकर कण्ठान करने के अलावा विशेष ज्ञान की प्राप्ति नहीं हई। जो हमारे धर्म के शास्त्र
कित संस्कृत भाषा में है, उनको पढ़ने के लिए उन भाषाओं के ज्ञान का भी मेरे पास अभाव ही था। उन शास्त्रों पर गुर्जरा Jain Edurawa:TSAN (अर्थ) आप समझना या व्याख्यान द्वारा दूसरों को समझा देना। हमारा काम था। किन्तु यदि उसा टाary.org