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भगवती आराधना समाधिमरणको सल्लेखना कहते हैं, सम्यक् रीतिमे शरीर और कषायको कृश करनेका नाम सल्लेखना है। शरीर वाह्य है और कषाय अभ्यन्तर है। शरीरका साधन भोजन है। धीरे-धीरे आहारको घटानेसे शरीर कृश होता है और कषायके कारणोंसे बचनेसे कषाय घटती है। शरीरको सुखा डाला और क्रोध मान माया लोभ नहीं घटे तो शरीरका शोषण निष्फल है । आत्मघात करनेवालेकी कषाय प्रबल होती है। क्योंकि जो रागद्वेष या मोहके आवेशमें आकर विष, शस्त्र, आग आदिके द्वारा अपना घात करता है वह आत्मघाती कहलाता है। सल्लेखना करनेवालेके रागादि नहीं होते। तत्त्वार्थसूत्र ७/२२ को टीका सर्वार्थसिद्धिमें एक उदाहरणके द्वारा इसे स्पष्ट किया।
जैसे व्यापारीको अपने व्यापारके केन्द्रका विनाश इष्ट नहीं होता क्योंकि उसके नष्ट होने पर उसका व्यापार ही नष्ट हो जायेगा। यदि किसी कारणवश उसके केन्द्र में आग लग जाये तो वह उसको बुझाकर उसकी रक्षा करनेका ही प्रयत्न करता है। किन्तु यदि उसको बचाना शक्य नहीं देखता तो उसमें भरे हुए मालको बचानेका प्रयत्न करता है। इसी तरह व्रत शीलरूपी द्रव्यके संचयमें लगा हुआ साधु या गृहस्थ भी अपने शरीरको नष्ट करना नहीं चाहता; क्योंकि वह धर्मका साधन है। यदि शरीर नष्ट होनेके कारण उपस्थित होते हैं तो अपने धर्मके अविरुद्ध उपायोंसे शरीरकी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है किन्तु यदि वह प्रयत्न सफल नहीं होता तो शरीरकी रक्षाका प्रयत्न त्यागकर अपने धर्मको रक्षाका प्रयत्न करता है । ऐसी स्थितिमें उसे आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ?
__ यथार्थमें मरण शरीरधारी प्राणियोंके लिये उतना ही सत्य है जितना जीवन सत्य है । जीवनके मोहमें पड़कर मनुष्य उस सत्यको भुला देता है और जिस किसी भी उपायसे सदा जीवित रहनेका ही प्रयत्न करता है। किन्तु उसका यह प्रयत्न सफल नहीं होता। एक दिन मृत्यु उसके इस प्रयत्नको समाप्त कर देती है। अतः जीवनके साथ मृत्युके सुनिश्चित होनेसे मनुष्यको जीवनके साथ मरनेके लिये भी तैयारी करते रहना चाहिये। तथा जीवनमें हर्ष और मृत्युमें विषाद नहीं करना चाहिये। जिनकी मृत्यु शानदार होती है उनका जीवन भी शानदार होता है । रोते धोते हुए प्राणोंका त्याग करना भी कायरता ही है । अतः मृत्युका आलिंगन भी साहसके साथ करना चाहिये । उसीका कथन इस ग्रंथराजमें है। ५. भ० आराधना और मरणसमाधि आदि
आगमोदय समितिसे १९२७ में 'चतुःशरणादि मरण समाध्यन्त प्रकीर्णक दशक' नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। इसमें आतुर प्रत्याख्यान, भत्तपरिण्णय, संथारगपइण्णय और मरण समाही इन चारमें प्रायः वही विषय है जो भ० आराधनामें मुख्य है। आतुर प्रत्याख्यानमें ७० गाथाएँ हैं। भत्तपरिण्णयमें १७२ गाथा हैं। संथारगपइण्णयमें १२३ और मरण समाधिमें ६६३ गाथा हैं । इस तरह मरण समाधि बड़ा ग्रंथ है और उसमें तथा भ०आ० में बहुत सी गाथाएँ समान हैं। शिष्य आचार्यसे मरण समाधि जानना चाहता है । आचार्य उसे समझाते हैं
भणइ य तिविहा भणिया सुविहित आराहणा जिणिदेहि । सम्मत्तम्मि य पढ़मा नाणचरित्तेहिं दो अण्णा ।। १५ ।।
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