Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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आस्था की ओर बढ़ते कदम इले सहर्ष स्वीकार किया। मुझे अनुभव हुआ कि हमारी भेंट असाधारण है। मैं जिस व्यक्ति से मिल रहा हूं यह संसार की कन्नाओं, वासनाओं, इच्छाओं से कोसों दूर है। यह तो जैन धन की भव्य आत्मा है। मेरा सौभग्य है कि मैं इस व्यक्ति से मिल रहा हूं।
इस प्रकार दिन बीतने लगे। एक दिन यह मुझे मेरे घर के पास मिला। मेरे धर का पता पूछा। मैंने इसे अने को कहा। इसने कहा “अभी शाम हो रही है, फिर कर्म जरूर आउंगा'। फिर एक दिन वह मंगलमय समय आ ग। जव मेरा धर्मभ्राता श्री रविन्द्र जैन को किसी सरकारी कन के लिए धूरी आना पड़ा।
मुझे इस ने स्वयं बतलाया कि मुझे एक सूचना इक्ट्ठी करने के लिए धूरी आना हैं मैं आप के दर्शन फगा। मैंने कहा "क्या बात करते हो ? दो दिन आते जाते रहने ? क्या फायदा ? आप दो दिन काम समाप्त कर के जना मेरे घर आ जाया करें। यह घर आप का ही है"।
मेरी इस बात का मेरे धर्मभ्राता ने शिरोधार्य विवा। वह दो रातें मेरे घर पर रूका। यह दिन कुछ गर्मी के धे पर इतनी ज्यादा गर्मी नहीं थी। यह दो दिन हमें एक दूसरे को समझने के लिए अच्छा अवसर मिला। मुझे लगा कि जो व्यक्ति मेरे सामने बैठा है वह मैं ही हूं। मैं और मेरे धन्भ्राता में मात्र शरीरिक अंतर है। आत्मा की दृष्टि से हम एक हैं। मेरा धर्मभ्राता सत्य के करीब है। यह अनुभव की भूनिका पर जीने वाली जीवात्मा है। मैंने अनुभव किया कि मेन इस व्यक्ति से कई जन्मों का रिश्ता है। एक जन्म में इत्ना अनुभव नहीं किया जा सकता। इसका त्याग, वैराग्य, व आध्यात्मिक जीवन ने मेरे जीवन पर अमिट छाप छोड़ दी यह भेंट इस कारण असाधारण थी कि मैं जैन धर्म के
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