Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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- आस्था की ओर बढ़ते कदम “स्वाध्याय के समान तप भूत काल में था न भविष्य में होगा ना वर्तमान में है।" ऐसा प्रभु महावीर का कथन है।
स्वाध्याय का एक अर्थ तो शास्त्रों का पठन पाठना है, दूसरा अर्थ आत्मा का अध्ययन है। स्वाध्याय करने वाले की कर्म निर्जरा होती है। स्वाध्याय करने वाला महातपस्वी है।
जैन धर्म में साहित्य दो प्रकार है (१) मुक्ति का कारण अंग उपांग साहित्य (२) अलोकिक या मिथ्या श्रुत। जिस श्रुत के पढ़ने से राग द्वेष वढ़े वह मिथ्या श्रुत है। श्रावक को दोनों तरह का साहित्य पठनीय है। पर मुझे तो आराधना सम्यक्त्व साहित्य की करनी है। हम श्रावक हैं, श्रावक धर्म के आराधक हैं। इस धर्म पर चलने का प्रयास करते हैं। इसके प्रचार प्रसार में स्वयं को लगाकर, धर्म की प्रभावना में सहायक बनने का प्रयत्न करना, हमारे जीवन का लभ्य है। हमारा सारा साहित्य धर्म के प्रचार प्रसार हेतु है। किसी धर्म की आलोचना हेतु नहीं।।
___भगवान महावीर के युग से लेकर वीर वि. सं. ९८८ तक आगम साहित्य श्रुत परम्परा से आगे चलता रहा। लिखना ठीक समझा जाता था। फिर आचार्यों ने सोचा "पंचम काल" (कलियुग) के प्रभाव से बुद्धिक्षीण हो रही है, वृहत साहित्य नष्ट हो चुका है। वाकी साहित्य की रक्षा के लिए समस्त साहित्य को लिपिवद्ध करना, संघ हित में हैं" इसी विचार से गुजरात के वल्लभी नगर में ५०० साधुओं का सम्मेलन देवाधर्धीगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में हुआ। जिस में शेष याद साहित्य को लिपिवध किया गया। आज यही साहित्य श्वेताम्बर समाज का आधार है। दिगम्बर परम्परा ने इस साहित्य को कुछ मतभेदों को कारण मानने से इन्कार
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