Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 477
________________ पारया की ओर-पते कदा सेनापति होते हुए भी परमाहंत था वह अहिंसा में विश्वास रखता था। उसने ब्राह्मण समाज से प्रार्थना की कि वह यहां से प्राप्त जिन प्रतिमा को विराजित करने के लिए व जिनालय वनाने के लिए स्थान दें। ब्राह्मणो ने कहा "मंत्री जी ! एक ब्राह्मण तीर्थ पर जैन मन्दिर कैसे बन सकता है ? यह वह धरती है, जहां परशुराम ने क्षत्रियों का नाश किया था। हमारे लिए यह पवित्र तीर्थ है। हम जैनों को मन्दिर नहीं बनाने देंगें।" श्रावक विमलशाह ने चतुरता से काम लेते हुए कहा ___ हे विद्वानो ! आप मुझे धरती का छोटा सा टुकडा प्रदान करे, मैं उसकी मुंह मांगी कीमत चुकाने को तैयार हूं।" ब्राह्मण नेता ने मंत्री विमलशाह की वात सुनी। फिर ब्राह्मणों के नेता ने पररपर विमर्श करके कहा “अगर तुम सचमुच प्रभु भक्त हो और मन्दिर बनाना चाहते हो ते. जितनी भूमि चाहिए उतनी भूमि पर स्वर्ण मोहरें विटा दो। उस जमाने में स्वर्ण की मोहरे दड़ी वात थी। विमलशाह ने यह शर्त मान ली। स्वर्ण मोहरों के मध्य में छिद्र होता था। विमलशाह ने सोचा "यह ब्राह्मण खाली जमीन देख कर अपनी बात से मुकर न जाएं, इस लिए सर्व प्रथम इन छिद्रों को सोने से वंद करना चाहिए।" बडे लम्वे समय तक विमलशाह ने करोडों स्वर्ण मुद्राओं के छिद्र वन्द करवाए। फिर इन्हें हाथी पर लाद कर उस स्थान पर लाया गया। सारे स्थान पर मोहरें विछा दी गई। ब्राह्मणों ने वह स्थान विमलशाह को इतनी बड़ी कीमत लेकर दिया। इस प्रकार यह मन्दिर वडे कठोर संघर्ष से तैयार हुआ। जैसे पहले वताया गया है इस मन्दिर की ५७ देहरीयां हैं इन में से दसवीं देहरी का वर्णन किया जा चुका है। तेइसवी देहरी में अंविका माता की आर्कषक प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा विमलशाह की कुल देवी रहीं है। 477

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