Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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- स्था की ओर बढ़ते कदम इस की प्रथम झलक. से हमारे भारतीय शिल्पीयों की लगन व कला का पता चलता है। हमारी भारतीय वास्तु विद्या कितनी विशाल थी, कारीगर कैसे सिद्धहस्थ थे ? पत्थर में कैसे जान डाल देते थे ? इसका प्रमाण यह तीर्थ है। मन्दिर के शिल्प समृद्ध गुंवजों एवं स्तम्भों को देख कर ऐसा लगता है जैसे भारतीय स्थापत्य की अंगूठी में यह मन्दिर रूपी हीरा जड़ा हो। यह तीर्थ और इस का वातावरण देवलोक से कम नहीं है।
मन्दिर के मुख मंडप के प्रवेश द्वार में स्थापित एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस तीर्थ की स्थापना में यहां के राजा राणा कुम्भा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने यह स्थान दान दिया था। सेट धारणीशाह निकटवर्ती गांव वादिया के निवासी थे। वह राणा कुम्भा के मंत्री थे। मंत्री ने अपने आश्रय दाता को मन की भावना वताई। राजा ने वर्तमान रथल मन्दिर को दिया। इस स्थल का नाम राणकुम्भापूर पड़ा जो वाद में राणकपूर के रूप में जाना गया। यह एक नगर भी वस गया। धारणा ने भक्ति पूर्वक पूर्वक यह नाम दिया।
राणकपूर का मन्दिर अरावली की पहाडीयों में सुरक्षित है। पर्यटक दूर दूर से इसे निहार कर प्रसन्न हो जाता है। ज्यों ज्यों मन्दिर के करीव पहुंचता है, उपशिखरों पर हवा में घंटियों की टंकारें उसके हृदय को आन्दोलित करने लग जाती हैं। प्रभु ऋषभदेव की प्रतिमा के दर्शन कर भावाविभोर हो जाता है। चाहे यह मन्दिर जैन शिल्प पर आधारित है पर इस के निर्माता ने रामायण और महाभारत के कुछ दृष्य का यहां शिल्पाकरण किया गया है।
यह मन्दिर सम्प्रदायिक उदारता का प्रतीक है। २५ सीढ़ीयां चढ़ने पर पर्यटक को पाषाण की शिल्पकृत छत
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