Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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आस्था की ओर बढ़ते कदम
दास है । मैं नौकरी करता हूं।"
गुरूदेव ने कहा, “तुम पुरुषोत्तम दास हो, पुरुषोत्तम जैन क्यों नहीं ?" मेरी इच्छा है कि आप पुरुषोत्तम जैन कहलाओ। जिन का उपासक ही जैन कहलाता है ।" यह . उनका ईशारा था और मेरे सुनहरे भविष्य की ओर, जिस की कल्पना मैं किया करता था। मैंने आज्ञा मानते हुए कहा, "आज से मैं आप का पुरूषोत्तम जैन हूं। आप की आज्ञा भगवत् आज्ञा है ।" जैन धर्म में आचार्य से बढ़ कर कोई पद नहीं । उस की आज्ञा सर्वमान्य होती है । आचार्य बहुत मध्यम कद व आर्कषण प्रतिभा के धनी थे। वह अपनी एक बात से ही लोगों का जीवन बदल देते थे। अणुव्रत के माध्य से लाखों लोगों को नैतिकता व प्रमाणिकता का पाठ पढ़ा चुके थे। इसी भेंट में आचार्य श्री ने हमें स्वाध्याय की प्रेरणा दी। मुझे ध्यान है जब रविन्द्र ने एक प्रश्न आचार्य से उनकी परम्परा के वारे में पूटा था। वह प्रश्न शास्त्रीय आधार का था। श्री रविन्द जैन ने पूछा, "आप के सम्प्रदाय में आचार्य तो हैं पर उपाध्याय जैसा पद क्यों नहीं है ?" आचार्य भगवान् ने उत्तर दिया, " भाई ! हमारे प्रथम आचार्य भिक्षु बहुत महान थे। उन्होंने साधू-साध्वीयों को पद के लिए लड़ते झगड़ते देखा था। उन्होंने सभी पद आचार्य पद में इकट्ठे कर दिये। क्योंकि आचार्य पद से सव पद छोटे होते हैं। तब से अब तक हमारे सम्प्रदाय में आचार्य के सिवा कोई पद नहीं । यही हमारे संघ में अनुशासन का मुख्य कारण है । हमारे संघ में सभी साधु-साध्वियां एक आचार्य के शिष्य होते हैं ।"
इस तरह आचार्य श्री से थोड़ी सी मुलाकात जीवन की पूंजी बन गई। सब से बड़ी बात जो उन्होंने अपनी भेंट वार्ता में प्रेरणा स्वरूप रही, वह श्री "देखो
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