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- अपभ्रंश भाषा का विकास विवादग्रस्त हैं । डा० उपाध्ये ने योगीन्दु के परमप्पयासु और योगसार का समय ईसा की छठी शताब्दी के लगभग माना है किन्तु अन्य विद्वान् इस काल से सहमत नहीं। लगभग ईस्वी सन् ८०० से लेकर १३०० या १४०० तक अपभ्रंश साहित्य का विशेष प्रचार रहा था। यद्यपि भगवतीदास का मृगांकलेखा चरित्र या चन्द्रलेखा वि० सं० १७०० में लिखा गया। इस प्रकार प्राकृत और अपभ्रंश में रचना कुछ काल तक समानान्तर चलती रही, उसी प्रकार जिस प्रकार कुछ दिनों तक हिन्दी अथवा प्राधुनिक देश-भाषाओं के साथ अपभ्रंश चलती रही। संभवतः यही कारण है कि रुद्रट ने संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंश को भी साहित्यिक भाषा स्वीकार किया। नमि साधु अपभ्रंश को प्राकृत ही मानते हैं । लक्ष्मीधर ने अपनी षड्भाषा चन्द्रिका में अपभ्रंश को प्राकृत ही स्वीकार किया है।'
द्वितीय श्रेणी की प्राकृत भाषाओं से भिन्न-भिन्न प्रादेशिक अपभ्रंशों का जन्म माना जाता है। ये अपभ्रंश सन् ८०० ईस्वी से लेकर १५वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से या पूर्वकाल में संस्कृत और उत्तरकाल में प्रारम्भिक हिन्दी के साथ या राजस्थानी पिंगल के साथ मिलकर प्रयोग में आती रहीं।
संस्कृत और प्राकृत व्याकरणों के समान हेमचन्द्र, त्रिविक्रम ( १४०० ई० के लगभग ), लक्ष्मीधर ( १५वीं शताब्दी ई० का उत्तरार्ध), मार्कण्डेय (१७वीं शताब्दी ई० के लगभग ) आदि वैयाकरणों ने अपभ्रंश को भी व्याकरण के नियमों से बाँधने का प्रयत्न किया। फलतः अपभ्रंश की वृद्धि भी अवरुद्ध हो गई । कालान्तर में अपभ्रंश से ही भिन्न-भिन्न वर्तमान-भारतीय-प्रान्तीय-साहित्यों का विकास हुआ।
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१. षड्विधा सा प्राकृती च शौरसेनी च मागधी । पैशाची चूलिका पैशाच्यपभ्रंश इति क्रमात् ॥
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